Saturday, 20 September 2014
Tuesday, 9 September 2014
आज फिर....
आज फिर...
वो ही ग़ज़ल सुन डाली
वो ही ग़ज़ल सुन डाली
जो कभी तुम्हारे साथ के साथ सुनी थी
वक़्त की करवट से पड़ी सिलवटों को न देखो तो
इसका ख़ुलूस अब भी वही है।
आज फिर
मैं यूँ सज-संवर कर बैठी थी , जैसे तुम आओगे
और न आए तो शायद कहीं से देख लोगे मुझे
बड़ा ही मुनाफ़िक़ सा ख़याल है ये , पर
दिल बहलाने को ख़ुशनुमा एहसास ज़रूरी है।
आज फिर
इस शहर के चक्कर लगाते
उस मोड़ पर बसने वाली याद से जैसे टकरा गई
कमान से छूटे तीर को क्या पकड़ पाओगे !
देखो ना ! तभी मैं नज़र बचा कर चली आई हूँ।
आज फिर
तुम्हारी तरबियत का असर है शायद
या मेरी काबिलियत हावी मुझी पे
महसूल की उगाही करते यहाँ हर एक कंधे के बदले लोग !
यूँ ही नहीं इस ज़हानत-ऐ-जहां से अगवा हो जाने की ख़्वाहिश ।
आज फिर.......
आज फिर.......
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