कफ़स में अब बचा कुछ नहीं
बस दो मीठे अनाज के दाने
जो राह जुहारते सूख गए हैं
फड़फड़ाते पंखों की गूँज
चेहरे पे अब भी हवा देती है
बसेरा खाली है , बेहाली है
पर किसी के नए सफर की खुशहाली है
ये जो बचे हुए पानी के कतरे हैं
कुछ दिन सब्र करो, तो उड़ जाएंगे ये भी
जैसे जहाँ से आए थे, लौट जाने को ही
यहां कदम जमाए थे
"...तुम फ़िक्र न करना !"
जाने वाले ये कह कर गए थे
आखिर परदेस के रंग ही नए थे !
वहां तो सब अच्छा ही होगा
ऊँची ऊँची मुंडेरों पे सूरज उगेगा
कुछ और नहीं तो मूंग मसूर जो सुखाई होगी
किसी ने ,
उसी से ही कुछ दिन , माहौल बनाएंगे
फिर देखना कैसे , "आज़ाद" कहलाएंगे
मोहब्बत की बेड़ियां तो जैसे पंख कुतरे जाती थीं
अब हम पैरो में भी पंख लगा उड़ जाएंगे
फिर रोज़ का एक तमाशा होता था
नाचने के पैसे मिलते थे ,
माथे की कलघी का होश खोता था
पर एक आबादी का इंतज़ार है, गुमान है
आने वाली पुश्त से किया जो पैमान है
ये कुछ कविता जैसा फ़रमान लगता है
जो न समझे तो ज़र्रा , समझे तो जहान लगता है
एक मुट्ठी में जकड़ता है अना को इस क़दर
ऐसे की इसी में मेरा गिरेबां सिमटता है
ये कालीन के फ़र्श, ये सारा रंगीन सा मंज़र
सीने में क़ैद अब है मन , भटकता है दर-दर
गैर-मुल्की क्या इश्क़ का अंजाम दे रही
पाकीज़ा सपने को क्या नाम दे रही !!
सोचता है ..., परस्तिश में देस क्या मांगता होगा ?
बशर में ज़िन्दगी , या ज़िन्दगी में बशर आंकता होगा !
पामाल से आसमां की ये बेईमानी
पायाब ( आदमी की गहराई के भीतर ) में पल रही पशेमानी
और उधर ......
कफ़स में अब बचा कुछ नहीं
यकीन की सलाखें हैं , जो सीना फुलाए खड़ी हुई हैं
जंग ने दस्तक दे तो दी है
पर इश्क़ की तरह सख़्त-जान ये सवाली है
असद सा ज़ोर है, चाहे किस्मत में बेहाली है
....... बेशुमार सा इंतज़ार है ...
चाहे हाथ ख़ाली है
अब दोनों ही तरफ बचा कुछ नहीं ...