जाने कहाँ है वो मुकाम के जहाँ पहुँच कर
दुनिया के उसूलों के काबिल कह खुद को बहलाते हैं
कभी एक ख़ाक में जा घुलता है पानी का कोई छींटा
ऐसे धार में शामिल हो खुद को सभ्य हम कहलाते हैं
है लड़ती हद से अनहद से हर रोज़ ही खुदी मेरी
कि यहाँ ये पामाल करके सपने , कुछ तो पाते हैं
सिर्फ चेहरे का नूर ही नहीं किये देता है अँधा
तिजारतों में बिकते ईमान , करवटें बदलते इरादे हैं
हैं जीते वही बेशक के जो हैं आज़ाद इन चोंचलों से
पर रहे याद की बिना मरे नहीं ये जन्नत कभी पाते हैं
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