मैं जो भी हूँ
जो भी बन जाऊँगी
तुम्हारी ही मेहरबानियों का अंजाम है...
तुम्हारे नाम पे ..
एक कलम उठाई , स्याही उड़ेली
तुम्हारी क़ुर्बत ने रंग दिखाया ...
अब ये "आज" ही अक़बर हो गया है
और फिर ...
अहमक़ से ज़माने उतर आए कागज़ पे
पूरा मंज़र अफ़रोज़ है
एक तुम जानो एक मैं
बाकी मुझे सिर्फ़ रुख्सती की उम्मीद है
सब तुमने बुना और गूंथ दिया है
इस तरह मेरी दुकान चलाने का
सामान जुटाया तुमने ....
अनजाने ही सही
फ़कीर का घर बसाया तुमने।
(कुर्बत - Vicinity
अहमक़ - fool
अफ़रोज़ - shining, bright )
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