कुछ धूल में लिपटे फ्रेम
और फ्रेम में जड़ी काई
एक दीवार जिसके सहारे
सिसकियों में रात बिताई
बस ये ही कुछ याद है
जो छोड़ आई हूँ मैं
अपने पीछे
उस घर में
वो छज्जा जहाँ बार बार
घर बनाता था कबूतर का जोड़ा
हर बार मैं झुँझलाई
हर बार तिनकों को तोड़ा
बचा खुचा समेट कर अपना
उनका घर बसा आई हूँ मैं
अपने पीछे
उस घर में
कुछ टूटने का डर कभी
कोई अजल-गिरिफ़्ता चिंता
वक़्त के पुर्ज़े लटकाने को
की दीवारों पे चोट चुनिंदा
उनके निशाँ न मिटा पाई
पर वो सुराख़ भर आई हूँ मैं
अपने पीछे
उस घर में
रस्सी से बाँधती थी
बरामदे में पुरवाई
तौलिये में समेट लेती
ज़ुल्फों की अल्हड़ अंगड़ाई
जिनमें संसार बाँधा था
वो गिरहें खोल आई हूँ मैं
अपने पीछे
उस घर में
एक झरोखा उस कमरे का
पहली किरण जिसको चूमा करती थी
एक गिलहरी लुका-छुपी में
नयन मटकाए झूमा करती थी
हटा कर गत्ते-कागज़ की आड़
उसको भी आज़ाद कर आई हूँ मैं
अपने पीछे
उस घर में
awsome
ReplyDeleteI m glad that u liked it.. bahut shukriya @mohammed iliyas 😊 :)
DeleteHi anushka remember,, i like ur blog n ur writting style ,, i will share my collection soon.
ReplyDeleteHi anushka remember,, i like ur blog n ur writting style ,, i will share my collection soon.
ReplyDeleteHi kamal ! Yes I remember you .. long time ! Yes sure .. please share your stuff as well .. I will be glad to read it
DeleteAnd thank you so much
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