बता कहाँ ढूँढू तुझे ?
लाल रंग के गुबार में
या गंगा जल की फुहार में
तिलक की किसी लकीर में
दुआ बरसाते फ़कीर में
घंटे की चीत्कार में
या लेन देन के व्यापार में
किसी पेड़ की जड़ में
या दूर किसी बीहड़ में
किसी नदी के उफ़ान में
या बर्फीले तूफ़ान में
या शिलाओं के सीने में
किसी रेत के टीले में
नुक्कड़ पे बने चौंतरे पे
किसी दाड़ी वाले के पैंतरे में
तुम बसते किसी नमाज़ में
या गले फाड़ते साज़ में
या किसी भोंपू की आवाज़ में
पिछले कल में या आज में
मोमबत्ती दियो की आग में
लकीरों में बंधे भाग में
किसी कड़े में,किसी सिक्के में
या किसी गले के हार में
ये राह निहारे , पाँव पसारे
मानने को तैयार नहीं
इन्हीं कहीँ में छुपे पड़े हो
बड़े ज़िद्दी हो अड़े पड़े हो
कच्ची गोलियां न हमने खेली
हम मक्खी तुम गुड़ की भेली
छुपा छुपी न हमको भाए
नहीं बालक,तुम्हें समझ न आए
बहुत तरक्की हमने पाई
तेरे रहस्यों की गुत्थी सुलझाई
सीधे से अब सामने आओ
हमको न यूँ बहलाओ
ये कहते कहते पड़ी हाथ पे
एक नंगी उजली चाकू की धार
एक धारा फूट पड़ी
लाल रंग की बेशरम सी अपार
तब हमको समझ आया
की शरीर में जो ये दौड़ रही है
जो चीख़ है जो ये दुखन है
ये ही मंदिर ये ही मस्जिद
गुरूद्वारे गिरजा और सुखन है
फिर अपने कतरे हमने समेटे
सब सवाल अब रहे लपेटे
ज़वाबो का अंबार न सहा जाए
कुछ समझे कुछ यूँ ही रह जाए
ये कुछ अपरिचित जीवन हो तुम
किस्सों में लिपटे ; कभी गुमसुम
राग द्वेष तेरा मेरा
से परे कहीं उसका डेरा
सबको मिले और सबसे हो गुम
हो कहीँ नहीं मुझमें हो तुम
हो कहीं नहीं मुझमे हो तुम