यूँ हो जैसे सावन
जो न बरसे तो सूखा
बरसे तो गाँव बहाए
यूँ हो जैसे ख़्वाब कोई
कभी सोने को तरसाये
कभी बंद आँखों में घर बनाए
यूँ हो जैसे आँख का पानी
आए तो बेख़ौफ़ सा माज़ी
ना आए तो लापरवाह कल
यूँ हो जैसे आँख का पानी
आए तो बेख़ौफ़ सा माज़ी
ना आए तो लापरवाह कल
यूँ हो जैसे राज़ कोई
न कहो तो जैसे भरम
कह दो तो न काबिल-ए -फ़हम
यूँ हो जैसे आसमां का चाँद
न आए तो दुनिया से अलहैदा
आए तो सबका इश्क़
यूँ हो जैसे ग़ज़ल कोई
कभी मतला ही पूरी दास्ताँ
तो कभी सफ़्हों में न सिमट पाए
( न काबिल-ए -फ़हम- unintelligible
मतला - the opening verse of a gazal
सफ़्हों - Pages )
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