Monday, 12 January 2015

by nida fazli

कुछ तबीयत ही मिली थी ऐसी 
कुछ तबीयत ही मिली थी ऐसी 
चैन से जीने की सूरत ना हुई
जिसको चाहा उसे अपना ना सके 
जो मिला उससे मुहब्बत ना हुई

जिससे जब तक मिले दिल ही से मिले 
दिल जो बदला तो फसाना बदला
ऱसम-ए-दुनिया की निभाने के लिए 
हमसे रिश्तों की तिज़ारत ना हुई

दूर से था वो कई चेहरों में 
पास से कोई भी वैसा ना लगा
बेवफ़ाई भी उसी का था चलन 
फिर किसीसे ही श़िकायत ना हुई

व़क्त रूठा रहा बच्चे की तरह 
राह में कोई खिलौना ना मिला
दोस्ती भी तो निभाई ना गई 
दुश्मनी में भी अदावत ना हुई

हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा
  हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा
मैं ही कश्ती हूँ मुझी में है समंदर मेरा

किससे पूछूँ कि कहाँ गुम हूँ बरसों से
हर जगह ढूँढता फिरता है मुझे घर मेरा

एक से हो गए मौसमों के चेहरे सारे
मेरी आँखों से कहीं खो गया मंज़र मेरा

मुद्दतें बीत गईं ख़्वाब सुहाना देखे
जागता रहता है हर नींद में बिस्तर मेरा

आईना देखके निकला था मैं घर से बाहर
आज तक हाथ में महफ़ूज़ है पत्थर मेरा 

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