मैं एक ग़ज़ल कहूँ
और तुम आओ
है लगती ख़ाक ज़िन्दगी
कभी तुम इसको सजाओ
दूर आसमानों पे
गज़ब सुरमयी पहरा
है उलझी ज़ुल्फ़ बे-ढंगी
कभी तुम इसको सुलझाओ
मेरे कदमों पे लिखी है
कहानी एक सफर की
इनका आवारापन पी लो
अपना पता बतलाओ
इस ज़माने की मानिंद
न रखना जिस्म को नज़र
तोड़ो तुम ये रवायत
नया इश्क़ चलाओ
No comments:
Post a Comment