क्या ओढूँ और कितना ओढूँ
कहाँ कहाँ से ये तन ढाँपू
किस कीचड़ से पाँव बचाऊँ
किसको देख नाक-भौं सिकोडूँ
खोकले से शरीर के भीतर
मन कबूतर सा सहमा ठहरा
इसको किसके पते पे भेजूँ
किस दिशा में इसको छोडूँ !
सब रंगों से काला मेरा रंग
गहरा पर न बदन सुहाए
उसपर औरत ज़ात के बंधन
किसको पालूं , किससे मुँह मोडूँ
सूरज को ढँक के उँगली से
कर दी थी इस दिन की शाम
एतमाद की दीवार बनाई
जंगले की टोह में इसको ही तोड़ूँ
पुर्ज़ा -पुर्ज़ा कर जिसे बटोरा
कड़वा-कसैला दिन पिघलाया
फ़िर शाम बरसी , दिन फूला
अब गीली रात का दामन निचोड़ूँ
कोई खेल नहीं है मैं होना
और मैं भी तो एक खेल ही हूँ
झूठे किरदारों में बसी रही
एक एक कर इनका गला मरोड़ूँ !!!
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