Thursday 16 January 2014

बचपन




मैं अक्सर फुर्सतों के पल चुरा कर बैठ जाती हूँ
भटकते मन के सवालों को यूँ ही मानती हूँ

कि कागज़ कि कश्ती के ज़माने याद आते हैं
बेतुकी ज़िद्द के दिन, आज मेरा बचपन कहाते हैं

बहुत ही नाज़ से जिसको संभाले चल रहा ये मन
बेफिक्री का क्या आलम , न रहती चोट कि चुभन

न था सो जान का शिक़वा, न ही खो जाने का था डर
बस थी नीम कि टहनी , और झूले का वो सफ़र

घरौंदा रेत का बनता.., कभी बनता था परदे का
चमकती धूप के दिन थे, न था मौसम वो सर्दे का

न थी बालों कि बनावट हमारे , हमारे खेल का हिस्सा
न रंग -रूप बनता था, फुसफुसाती आवाज़ों का किस्सा

तभी उस ओर से हमको बीन कि धुन सुनाई दी
साँप का खेल होता था , थी बहती जब पुरवाई

हाट जाने को मिलता दो-का-सिक्का मुँह को सिलता  था
मुट्ठी-भर गेंहू के बदले, बरफ़ का गोला मिलता था

रास्ता बहती पगडण्डी का था अल्हड़-सा , फूहड़-सा
निगोड़ी चप्पल में आ अटका कोई पत्थर सा

बसी उस राह में जो थी, आज़ादी कि धूल थी
नहीं अब छू पाती मुझे वो, मैं अब गुल का फूल थी

न अब वो नीम फैला है, न रिमझिम बरसता आँगन
खड़े हैं ईंट के किले , शायद खो गया बचपन

अब उस चौखट के, दरवाज़े के नए रंग चमकते हैं
तुम कौन हो ? क्यों आए ?.., ये सवाल करते हैं

पर मैं आज भी नहीं डरती रेत के टीले बनाने से
सड़क बनी पगडंडी को, चाहने से, अपनाने से

इसी तरह रंगों का वही संसार बन जाएगा
अटारी पे फिर से चढ़ कर कोई गीत गाएगा

अब भी मुझमें जीता है, रचा-बसा है कच्चापन
जो हर बार लौट आता है.., खिलता-खेलता बचपन