Saturday 4 November 2017

गुब्बारे




जो फूँक लगे तो फूल के कुप्पा हो जाते थे
हमको छुप्पन छुप्पा का खेल भुलाते थे
तिफ़्ल हसरतों के पंख बन उग आते थे
कम पैसों में आते थे , अब्बा की जेब को भाते थे
रंग बिरंगे पर सादा से , बस मुस्काते थे
मरते मरते बस एक ज़ोर की आवाज़ लगाते थे
कभी कभी तो पानी और रंग भी बरसाते थे
मेरे बचपन वाले तो बस प्यार सिखाते थे
मैं बस दूर से निहारती थी , वो मुझे बुलाते थे
छोटे की माउज़र गन की ख़ातिर, हम उनसे नज़र चुराते थे
मानो जैसे जीते जागते हँसी के फुव्वारे थे
बस ऊपर को ही उड़ना सिखाते गुब्बारे थे ...