Friday 13 May 2016

जो होता कोई वक़्त

जो होता कोई वक़्त तो गुज़र भी जाता
ये यादों का समुन्दर है , लहर लौट ही आती है

न तो इश्क़ ही कहलाया , न कोई वफ़ा का नाम
जैसे कोई सराब है और यूँ ही लुभाती है

चश्म का दरिया हो , या हो जुबां का आबिलह
बड़ी बेदर्द ये किस्मत है , हमेशा रंग दिखती है

मैं भी फ़लक के आईने में , बसता कोई चाँद होती !!
बारान के फ़स्ल में घुली ,ख़ाक की खुशबू ही भाती है

आँख से सीने में , फिर सीने से रग में उतरे
ये ख़्वाब बेहया हैं, आशुफ़्ता मेरी हस्ती है

आज़ार-ए -जान हो जाए , दोस्ती है या छलावे हैं
अब्लहि ही अब तो अक्सर , मुझे मुझसे मिलाती है





आबिलह - blister
बारान-rain
फ़स्ल-season
आज़ार-ए -जान - torment of life
अब्लहि - quality of simpleton, stupidity

Wednesday 4 May 2016

ये भक्ति है

मंदिर में जा कर
एक  सुकून मिला ,
पत्थर को सजा कर...
उतार के सब लकीरें
अपने माथे से,
उसके पैरों में रख आए हैं।
देखो ! हमने "फ़र्ज़" निभाए हैं !
उसको नींद जगाने को,
ज़ोर से एक घंटे की मूँछ भी खींची
फिर हिला के अपने हाथ
सब पाप-मैल वहीँ झाड़ दिया
हाथ हलके किये ,
आखिर  नए "कर्मों" को भी जगह चाहिए !
अपना माथा लाल रंगा
बाहर बैठे कुछ टेढ़ी लकीरों वाले हाथों में
कुछ सीधी लकीरों वाले हाथों ने
परोपकार बरसाया !
बस अब सब साफ़ है पाक है
ये भक्ति है , क्या समझे मज़ाक है ??