Friday 30 December 2016

नया साल




एक ग़ाफ़िल सा साल था
चला गया , जा रहा है
पर , ख़्वाबीदा मेरी हसरत
फिर अगले साल को
नया ख़्वाब आ रहा है
❤️

(ग़ाफ़िल- insensible
ख़्वाबीदा - lost in dreams , latent )

Tuesday 6 September 2016

मन




सारा बोझ सर से उतार के
रख देने की ख़्वाहिश ने
फिर सर उठाया है
मन फिर से फुसफुसाया
और आकांशाएं जवान होने लगीं ...
काश !
सुबह को रंगीन किरणें घर आएं
एक कोरा अखबार हो
और झूले की मीठी नमकीन पींगें
ओर-छोर ऐसे ही झूले मन
और झूले से गिर जाने के अलावा
कोई और डर डरा पाए
हल्की हल्की साँस आए
फिर तुलसी अदरक की चाय
और दोपहरी में पीली दाल -चावल
एक गुदगुदाती किताब के पन्ने
तो कभी कोई तुमसी नज़्म 
जो बिन बोले मन सहला जाए
शाम में तुम आओ
तो तुम्हें मदमस्त पढ़ सुनाती
कुछ कविता का रस होता
कुछ तुमको गुनगुनाती
..सुस्ताती अँगड़ाती शरीर की हड्डियाँ
माँ की गोद सा बिछौना
और पिता की पनाह सी छत
बस इतना मिल जाए
जैसे बरसों बाद तन गंगा नहाए..
ज़मीन पे टिके रहने की ख़्वाहिश है
बाहर तो एक बड़ी नुमाइश है
जहाँ सब बिकता है
सपने हकीकत किसी के दिन ,
किसी की रात
यहाँ तक की बिक जाते है
कभी कभी खुद हालात !
बाकी सब ढकोसला है
सुना है , ऊँची इमारतों का मन खोकला है
सब मन की माया
मन ने ही बना डाला संसार
सब मन के आगे पस्त हुए
पर मन ने ही बुना है व्यापार

ख़ैर !
हर छुट्टी के दिन अपने सपनों को
पानी देते रहते हैं
मन का वृक्ष सूख जाए
मैं ज़िंदा हूँ ! कोई तो याद दिलाए
एक उम्मीद की नैय्या पार लग जाए
कैसे भी करके ...
ये  सनीचर उतर जाए

कल फिर दौड़ में बने रहने को
एक ग़ैर-ज़रूरी जंग होगी
ज़रुरत बुरी चीज़ है !!

ये सुन मेरी आत्मा मुझ-ही  से तंग होगी

Saturday 27 August 2016

#दाना मांझी


पंजर के भीतर क़ैद ह्रदय में , जो एक "हाँजी" होता
भीड़ अंधी-गूंगी न होती , हर दरिया का माँझी होता

वातानुकूलित कमरे से निकल ,कोई सुख - दुःख का सांझी होता
न कोई कालाहांडी होती , न कोई दाना मांझी होता

Thursday 9 June 2016

नुख्ताचीन









नुख्ताचीन हर नज़र है 
यहाँ खुश रहने को क्या नया हो ! 
ख़्याल अपने बारे में ही अच्छा न हो
तो ज़िन्दगी में क्या बचा हो !! 

Monday 6 June 2016

होंठों पे जादू , चाहे दिल में तूफ़ान

होंठों पे जादू , चाहे दिल में तूफ़ान
क्योंकि आप अपना मरहम है
भाईसाब ! यहाँ की यही रीत
गोया हम में ही कुछ कम है

है सब पानी , बहता बड़ी तेज़
मेरी ही चाल मद्धम है
उस पार हैं कबके टाप गए सब
क्यों रुका मेरा ही कदम है

दो घड़ी जो रुक कर सुन ले बस
मेहबूब का बड़ा करम है
अब हवा , मुरादें , पंछी हैं कहाँ
ये तो बस कल के भरम हैं

मेरा हाथ थाम के चलदे बस
ये इतना कहाँ तूझमें दम है
गिर कर ही चलना सिखाती है
ज़िन्दगी का हंसीं सितम है

मुझे फिर भी यूँ रह जाने पे नाज़
बस आँख ज़रा सी नम हैं
तकमील परस्ती में क्या उम्र गंवाएं !
ज़िन्दगी ये आवारा सनम हैं

है मेरा अपना ये साया तब तक
जब तक बस हम में हम हैं
कोई और बनने में गँवा दिया
 तो बेकार गया ये जनम है






तकमील - perfection / perfectionist 

Friday 13 May 2016

जो होता कोई वक़्त

जो होता कोई वक़्त तो गुज़र भी जाता
ये यादों का समुन्दर है , लहर लौट ही आती है

न तो इश्क़ ही कहलाया , न कोई वफ़ा का नाम
जैसे कोई सराब है और यूँ ही लुभाती है

चश्म का दरिया हो , या हो जुबां का आबिलह
बड़ी बेदर्द ये किस्मत है , हमेशा रंग दिखती है

मैं भी फ़लक के आईने में , बसता कोई चाँद होती !!
बारान के फ़स्ल में घुली ,ख़ाक की खुशबू ही भाती है

आँख से सीने में , फिर सीने से रग में उतरे
ये ख़्वाब बेहया हैं, आशुफ़्ता मेरी हस्ती है

आज़ार-ए -जान हो जाए , दोस्ती है या छलावे हैं
अब्लहि ही अब तो अक्सर , मुझे मुझसे मिलाती है





आबिलह - blister
बारान-rain
फ़स्ल-season
आज़ार-ए -जान - torment of life
अब्लहि - quality of simpleton, stupidity

Wednesday 4 May 2016

ये भक्ति है

मंदिर में जा कर
एक  सुकून मिला ,
पत्थर को सजा कर...
उतार के सब लकीरें
अपने माथे से,
उसके पैरों में रख आए हैं।
देखो ! हमने "फ़र्ज़" निभाए हैं !
उसको नींद जगाने को,
ज़ोर से एक घंटे की मूँछ भी खींची
फिर हिला के अपने हाथ
सब पाप-मैल वहीँ झाड़ दिया
हाथ हलके किये ,
आखिर  नए "कर्मों" को भी जगह चाहिए !
अपना माथा लाल रंगा
बाहर बैठे कुछ टेढ़ी लकीरों वाले हाथों में
कुछ सीधी लकीरों वाले हाथों ने
परोपकार बरसाया !
बस अब सब साफ़ है पाक है
ये भक्ति है , क्या समझे मज़ाक है ??

Saturday 30 April 2016

न कोई रिश्ता न कोई हक़ रहा



न कोई रिश्ता न कोई हक़ रहा
पर मेरे वजूद की तरह वो बेशक रहा
बसा करता है सीने की परतों में कहीं
चलो ये दर्द ही इनाम-उल-हक़ रहा

ऐशो-आराम की एक हांडी में
दाल-भात सा है दहक रहा
है एक सवाल ये मुक्कम्मल सा
क्यों मट्टी में ही मर्ज सिसक रहा ?

नहीं कोई सुराख फिर भी दीदार को
उठा के एढ़ियां जो मैं उचक रहा
बेकार बारहां सा मश्क़ है लेकिन
जो छोड़ दूँ तो तुझमें-मुझमें क्या फ़र्क रहा !

आसाइश में मेरे बाजू में सुनो
एक हुजूम दोस्त-रिश्तों का चहक रहा
आमंद-ओ-रफ़्त; इक पुराना सिलसिला
मन यूँ ही वहशत में बहक रहा !

है तुझसे कैसा यकीन का रिश्ता !
किसी और पे इनायत से मुझको रश्क़ रहा
कितनी ख्वाहिशें हैं ! पूछो उससे  
फूल-माला बन गले में जो कसक रहा

तेरे बिना मैं कुछ नहीं माना
पर कहाँ मेरे बिन तू भी महक रहा !
ख़ुदा ; इलाही या आसमां का ख़्वाब
ये कुछ नहीं  , तेरा नाम अब इसक रहा।


(इनाम-उल-हक़- gift of the truth
आसाइश - rest , comfort
आमंद-ओ-रफ़्त - coming and going
इसक - इश्क़ )

Monday 11 April 2016

कफ़स में अब बचा कुछ नहीं

कफ़स में अब बचा कुछ नहीं 
बस दो मीठे अनाज के दाने 
जो राह जुहारते सूख गए हैं 
फड़फड़ाते पंखों की गूँज 
चेहरे पे अब भी हवा देती है 
बसेरा खाली है , बेहाली है 
पर किसी के नए सफर की खुशहाली है 
ये जो बचे हुए पानी के कतरे हैं
कुछ दिन सब्र करो, तो उड़ जाएंगे ये भी 
जैसे जहाँ से आए थे, लौट जाने को ही
यहां कदम जमाए थे 
"...तुम फ़िक्र न करना !"
जाने वाले ये कह कर गए थे
आखिर परदेस के रंग ही नए थे !
वहां तो सब अच्छा ही होगा 
ऊँची ऊँची मुंडेरों पे सूरज उगेगा  
कुछ और नहीं तो मूंग मसूर जो सुखाई होगी 
किसी ने ,
उसी से ही कुछ दिन , माहौल बनाएंगे 
 फिर देखना कैसे , "आज़ाद" कहलाएंगे 
मोहब्बत की बेड़ियां तो जैसे पंख कुतरे जाती थीं 
अब हम पैरो में भी पंख लगा उड़ जाएंगे 
फिर रोज़ का एक तमाशा होता था 
नाचने के पैसे मिलते थे , 
माथे की कलघी का होश खोता था  
पर एक आबादी का इंतज़ार है, गुमान है 
आने वाली पुश्त से किया जो पैमान है  
ये कुछ कविता जैसा फ़रमान लगता है 
जो न समझे तो ज़र्रा , समझे तो जहान लगता है 
एक मुट्ठी में जकड़ता है अना को इस क़दर
ऐसे की इसी में  मेरा गिरेबां सिमटता है 
ये कालीन के फ़र्श, ये सारा रंगीन सा मंज़र 
सीने में क़ैद अब है मन , भटकता है दर-दर 
गैर-मुल्की क्या इश्क़ का  अंजाम दे रही 
पाकीज़ा सपने को क्या नाम दे रही !!
सोचता है ..., परस्तिश में देस क्या मांगता होगा ?
बशर में ज़िन्दगी , या ज़िन्दगी में बशर आंकता होगा !
पामाल से आसमां की ये बेईमानी 
पायाब ( आदमी की गहराई के भीतर ) में पल रही पशेमानी 
और उधर ......
कफ़स में अब बचा कुछ नहीं 
यकीन की सलाखें हैं , जो सीना फुलाए खड़ी हुई हैं 
जंग ने दस्तक दे तो दी है 
पर इश्क़ की तरह सख़्त-जान ये सवाली है 
असद सा ज़ोर है, चाहे किस्मत में बेहाली है 
....... बेशुमार सा इंतज़ार है ...
चाहे हाथ ख़ाली है 
अब दोनों ही तरफ बचा कुछ नहीं ...

Wednesday 24 February 2016

She was .....

She was .....

like a Fragrance that hops
from this nose to that ,
like a shimmer or glitter
in the eyes of black cat ,
like a "love letter girl" in an email world
like a slow emotion that unfolded
and furled ,
like the words those are shy , smiles and stay ..,
like the hands those fear to recite a simple pray
like those unmanageable hair , sways and betray
like the rebuke of a comb , that flips wondering away
like the dust of the shoes those saw new fuller ponds
like the hypocrisy of destinations , those are called "bonds "
like always ending up over , change and range
like a flickering light , beautiful but strange
like an ordinary song and an ordinary rhyme
like a dance in solitude , footsteps in chime
like a vast ocean , so much in the heart
like an elegant jewelry piece , famous fine art
like an untold story, several story-tellers
like a world in book shelves; daydream seller !

Sunday 3 January 2016

तारीख़

तारीख़ बदलते यहाँ तक आ पहुंचे
यहाँ से जाने कहाँ जाएंगे
हर साल की यही आफतें हैं
हम इंसा' हैं , चलो इंसा का फ़र्ज़ निभाएंगे

कभी रंग खिलते देखे ,  जो लोग मिलते देखे
कभी मिले थे लोग  उनको,बे-हिस सा पाया है
चलो ! शुक्रिया इस इल्मियत नवाज़ी का
कभी  अपने थे हम , अब मेहमां कहलाएंगे

ताबीर पर मेरे ख़्वाबों की
बस वहीँ तक समझो अब
रौशन-नज़री के कायदों पे
हम नया वो कल बसाएँगे

जो बीत गया है उसका गिला भी क्या करें
दस्त-नवर्द दिल की उफ़ !! कितनी मन्नतें !
सरगोशी में कहता है ये कल
आने वाले कल को , मुक्कमल कल दे जाएंगे  :)