Tuesday 21 October 2014

बदली है तो बस .....

गाँव तो हर कहीं के एक से हैं ,
एक सी मुस्कान , एक सा मुक़ाम
'ग़र बदली है तो बस ...
इंसान की सूरत ,
दिलों की फ़ितरत ,
राह के सन्नाटे ,
घी के बने परांठे ,
फूँस की छत ,
और अडान से झाँकने वाली
गौरैय्या के घौंसले की लत !

पंछियों के जागने का समय
सब जगह एक सा है ..
खेतों की रंगत पर भी
शक़ नहीं मुझको ...
बदली है तो बस ,
धरती के सीने पे उकेरी लकीर ,
कभी अनाज माँगने वाला फ़कीर ,
बैलों के घंटे की आवाज़ ,
मिट्टी को पसीने से सींचता जाबाज़ ,
शिकायतों का अपनापन ...
बुढापों में मौजूद बचपन !

बस जो बदली है ,
वो रूह की पहचान है ...
कहने को अब भी हम इंसान हैं
बाकी सब एक सा है ,
वही है....
जैसे चमकता , लीपा-पुता
सीना फुलाए खड़ा
अपनी ही तन्हाई से जूझता ..
एक ख़ाली मकान है !!

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