Thursday 29 January 2015

मुझमें हो तुम




बता कहाँ ढूँढू तुझे ?
लाल रंग के गुबार में
या गंगा जल की फुहार में
तिलक की किसी लकीर में
दुआ बरसाते फ़कीर में
घंटे की चीत्कार में
या लेन देन के व्यापार में
किसी पेड़ की जड़ में
या दूर किसी बीहड़ में
किसी नदी के उफ़ान में
या बर्फीले तूफ़ान में
या शिलाओं के सीने में
किसी रेत के टीले में
नुक्कड़ पे बने चौंतरे पे
किसी दाड़ी वाले के पैंतरे में
तुम बसते किसी नमाज़ में
या गले फाड़ते साज़ में
या किसी भोंपू की आवाज़ में
पिछले कल में या आज में
मोमबत्ती दियो की आग में
लकीरों में बंधे भाग में
किसी कड़े में,किसी सिक्के में
या किसी गले के हार में
ये राह निहारे , पाँव पसारे
मानने को तैयार नहीं
इन्हीं कहीँ में छुपे पड़े हो
बड़े ज़िद्दी हो अड़े पड़े हो
कच्ची गोलियां न हमने खेली
हम मक्खी तुम गुड़ की भेली
छुपा छुपी न हमको भाए
नहीं बालक,तुम्हें समझ न आए
बहुत तरक्की हमने पाई
तेरे रहस्यों की गुत्थी सुलझाई
सीधे से अब सामने आओ
हमको न यूँ बहलाओ
ये कहते कहते पड़ी हाथ पे
एक नंगी उजली चाकू की धार
एक धारा फूट पड़ी
लाल रंग की बेशरम सी अपार
तब हमको समझ आया
की शरीर में जो ये दौड़ रही है
जो चीख़ है जो ये दुखन है
ये ही मंदिर ये ही मस्जिद
गुरूद्वारे गिरजा और सुखन है
फिर अपने कतरे हमने समेटे
सब सवाल अब रहे लपेटे
ज़वाबो का अंबार न सहा जाए
कुछ समझे कुछ यूँ ही रह जाए
ये कुछ अपरिचित जीवन हो तुम
किस्सों में लिपटे ; कभी गुमसुम
राग द्वेष तेरा मेरा
से परे कहीं उसका डेरा
सबको मिले और सबसे हो गुम
हो कहीँ नहीं मुझमें हो तुम
हो कहीं नहीं मुझमे हो तुम



Saturday 24 January 2015

द्वंद (...by Siddharth kumar Yadav )



"अधमुंदी आँख"और
"स्याही में सने" मेरे हाथ
कागज़ पे बैठे रहे
जैसे हों लड़ते आपस में
सत्-असत् के अस्तित्त्व पर
शब् भर भिड़ते रहे

कांच के ख्वाब हैं बिखरे हुए तन्हाई में
टूट जाएंगे गर आँखें खुलीं
अधमुंदी ही रहने दो इन्हे
धूप न छिड़को इनपर

आदर्श मूर्त हैं इन आँखों तले
हर संज्ञा है व्यवहृत
पलकों को न उतरने दो साँझ की तरह
ख्वाब कर रखे हैं इनमे अपहृत

हठात् और निर्मम सच
स्याही दिखाती सच्चाई  हरदम
ऊफ...इतनी सच्चाई
सच सुने सदियाँ  गुज़र गयीं
डर लगता है अब

हर इक लम्हा क्षत-विक्षत
कैद दर्द की आगोश में
ज्यों नासूर का रिसता खून ही
रंगा हो स्याही के रंग में

पर मैंने किसी की न मानी
"अधमुंदी आँखों " से जब ख्वाब बहने लगे
"स्याही सने हाथों"  को नहला दिया
जब हाथ काँप उठे दर्द से
आँखें बंद कर लीं
और ख्वाब सजा लिया...!!!

Sunday 18 January 2015

yu hota hai aksar..

Yu hota hai aksar..
Khaali Dar deewar , bewajah hi raah taakte Hain..
Ummeed ki baanh pakad kar..
Jaise safar kaat te Hain..
Tum ho aur ho bhi nahi..
Hum milenge Ek roz kahi..
Jaise junoon h mere sar..
Yu hota h aksar...

Yu hota hai aksar..
Meri kalam aur kagaz k beech...
Ek Jahan mera basta tha..
Jahan sab rango ke ghar the..
Har Kisi k liye rasta tha..
Uss mohalle ki raunak ab tum ho..
Mera ghar Kahan raha, Har gali base tum ho
Mere kisse hain uss kunche ka asar..
Yu hota h aksar...

Yu hota hai aksar..
Paa kar khona , Kho par pana..
Yu laga raha aana Jana..
Na mere chehre pe koi shikan aai..
Na Tumne Mujhe pehchana..
Ek paheli hai ye zindagi..
Nahi aasaan hai bandagi..
Main keh du Wo nazmo me..
Jo na zubaa kahe na nazar..
Yu hota hai aksar..

zindagi....

Zindagi khaak na thi,
 Khaak udaate guzri..
Tujhse kya kehte ,
Tere paas jo aate guzri..
Zindagi..
Din jo guzra ,
Toh kisi yaad ki ro mein guzra..
Shaam aayi,
Toh koi khawaab dikhate guzri..

Achhe waqton ki
tamanna mein rahi umr-e-rawaa'n..
waqt aesa tha
ke bas naaz uthate guzri..

Raat kya aayi ke
tanhai ki sargoshi mein..
Gham ka aalam tha magar ..
sunte sunate guzri..

Baar haa chaunk si jaati hai
nafasat dil ki..
Kisi thi aawaz..
kisko bulate guzri
Tujhse kya kehte..
Tere paas jo aate guzri..
Zindagii...
Zindagii..

Saturday 17 January 2015

sleepless Saturday

Ek roz Kuch Yu hua..
Koi muskuraya aur
Aalam madhyam hua..
Phir.. Kuch ret ke tile aae..
Kuch hum dugmagaae..
Aur sab dhundla gaya..
Koi nahi sunta..
Na kahi tak aawaz phunchti hai..
Ajeeb jagah hai..
Anokha anjana safar hai..
Ibadaton ki keemat nahi..
Talaf ki Ek umar Yu hi ..
Zismo me phansi rooh..
Marhal-e-shakht aur bass Tu..
Na koi saans leta hai..
Aur khoon jama hai ragon main..
Par uff ki Toh...
Main bejaan kehlaungi..
Aur kaise ummeedon ko muh dikhaungi !!
Ab Khud se hi naraz hu main..
Khaali se raasto me khoyi..
Kisi manzil ka raaz hoon main..
Aur duniya badalti hai..
Din guzarte hain..
Par Yu lagata hai jaise..
Sabhi Kuch ruk gaya hai...

Monday 12 January 2015

by nida fazli

कुछ तबीयत ही मिली थी ऐसी 
कुछ तबीयत ही मिली थी ऐसी 
चैन से जीने की सूरत ना हुई
जिसको चाहा उसे अपना ना सके 
जो मिला उससे मुहब्बत ना हुई

जिससे जब तक मिले दिल ही से मिले 
दिल जो बदला तो फसाना बदला
ऱसम-ए-दुनिया की निभाने के लिए 
हमसे रिश्तों की तिज़ारत ना हुई

दूर से था वो कई चेहरों में 
पास से कोई भी वैसा ना लगा
बेवफ़ाई भी उसी का था चलन 
फिर किसीसे ही श़िकायत ना हुई

व़क्त रूठा रहा बच्चे की तरह 
राह में कोई खिलौना ना मिला
दोस्ती भी तो निभाई ना गई 
दुश्मनी में भी अदावत ना हुई

हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा
  हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा
मैं ही कश्ती हूँ मुझी में है समंदर मेरा

किससे पूछूँ कि कहाँ गुम हूँ बरसों से
हर जगह ढूँढता फिरता है मुझे घर मेरा

एक से हो गए मौसमों के चेहरे सारे
मेरी आँखों से कहीं खो गया मंज़र मेरा

मुद्दतें बीत गईं ख़्वाब सुहाना देखे
जागता रहता है हर नींद में बिस्तर मेरा

आईना देखके निकला था मैं घर से बाहर
आज तक हाथ में महफ़ूज़ है पत्थर मेरा 

Monday 5 January 2015

यूँ हो जैसे





यूँ  हो जैसे सावन 
जो न बरसे तो सूखा 
बरसे तो गाँव बहाए 
यूँ हो जैसे ख़्वाब कोई 
कभी सोने को तरसाये 
कभी बंद आँखों में घर बनाए
यूँ हो जैसे आँख का पानी 
आए तो बेख़ौफ़ सा माज़ी  
ना आए तो लापरवाह कल  
यूँ हो जैसे राज़ कोई 
न कहो तो जैसे भरम 
कह दो तो न काबिल-ए -फ़हम 
यूँ हो जैसे आसमां का चाँद 
 न आए तो दुनिया से अलहैदा 
आए तो सबका इश्क़ 
यूँ हो जैसे ग़ज़ल कोई 
कभी मतला ही पूरी दास्ताँ 
तो कभी सफ़्हों में न सिमट पाए 







न काबिल-ए -फ़हम- unintelligible
  मतला - the opening verse of a gazal 
   सफ़्हों - Pages )