Wednesday 31 December 2014

नए साल... बस इतना करना






कुछ अनमोल से सपने और 
कुछ मस्सरतों के पल ,
ऐसा था जो गुज़र गया 
एक साल … 
कभी ज़द्दोज़हद और कुछ बे-अक्ल ,
और अब फिर तुम आए हो… 
कुछ उड़ने की ख़्वाहिश है 
अल्हड़ सी फ़रमाइश है ,
बस इतना तुम तस्लीम करना
भूखों का पेट भरना ,
बेघर को देना सर पे छत 
और मुस्कानें बेहद ,
सर्द मेहर दिलों  में सपने  
सब लगने लगें हमको अपने ,
आदमी को आदमी से यकदिली 
और आज़ादी  न सिर्फ कहने को मिली ,
और बस एक और गुज़ारिश है .... 
मेरी माँ को मर्ज़ का हल देना 
जिसने मिट्टी के चिरागों में 
करके रोशिनी माँगा मुझे 
उस कुशादा दिल को 
मुनव्वर कल देना 
नए साल 
मेरे लिए बस इतना करना 



(तस्लीम - acknowledge,
 सर्द मेहर - apathetic
 कुशादा दिल - big-hearted
मुनव्वर- illuminated, bright ) 

Thursday 27 November 2014

तुमने





 मैं जो भी हूँ
जो भी बन जाऊँगी
तुम्हारी ही मेहरबानियों का अंजाम है...
तुम्हारे नाम पे ..
एक कलम उठाई , स्याही उड़ेली
तुम्हारी क़ुर्बत ने रंग दिखाया ...
अब ये "आज" ही अक़बर हो गया है
और फिर ...
अहमक़ से ज़माने उतर आए कागज़ पे
पूरा मंज़र अफ़रोज़ है
एक तुम जानो एक मैं
बाकी मुझे सिर्फ़ रुख्सती की उम्मीद है
सब तुमने बुना और गूंथ दिया है
इस तरह मेरी दुकान चलाने का
सामान जुटाया तुमने ....
अनजाने ही सही
फ़कीर का घर बसाया तुमने।




(कुर्बत - Vicinity
  अहमक़ - fool
  अफ़रोज़ - shining, bright )

Monday 24 November 2014

हम तुम्हे बहुत याद करते हैं 

हम तुम्हे बहुत याद करते हैं
जाने कहाँ गुम  गई हो
हम फ़रियाद करते हैं
हम तुम्हे बहुत याद करते हैं

देर तक अलसाये न बिस्तर को कहना अलविदा
मासूमियत का दौर , मीठी झिड़कियों का काफिला
उस वक़्त जब हम सिर्फ ठन्डे पानी से डरते थे
उस सुबह और उन नखरों पे मरते हैं
हम तुम्हे बहुत याद करते हैं

धूल में अब कपड़े नहीं सनते ,
मीठी गोली पे मन नहीं मचलते
कीचड़ को पानी से धो पाते थे
अब लोगों की नज़रो से बचने का जतन करते हैं
हम तुम्हे बहुत याद करते हैं 

Saturday 15 November 2014

sleepless saturday#5




आधा चाँद और एक सूरज भी,
अधखिली कलियाँ कुछ शबनम.

बांसुरी की धुन से लिपटा एक साज़
,कुछ अधूरी पर मीठी आवाज़.

नन्ही आँखों में बड़े सपने,
 और कुछ खाली पन्नों वाली किताब.

कोई ला के मुझे दे एक मीठा सा सवाल
 एक नन्हा सा जवाब.

- by Siddharth Kumar Yadav

Saturday 8 November 2014

Sleepless Saturday #4




ज़िन्दगी जो भी होती है ..

मुश्किल या आसान..

रंगीन या सुनसान..

अपनी या मेहमान..

बर्बाद या बने शान..

सब कुछ.....

मुझसे ही आदि-अंत है

ये मेरे ही भरम हैं

ज़िन्दगी  जो भी होती है....

सब मेरे ही करम हैं ।।  

Friday 24 October 2014

SLEEPLESS SATURDAY #3








इश्क़ ज़िंदा है और रहेगा मुझमें
फ़िज़ा की तरह ....
कौन हारा या जीता है
ये सवाल है
मौसम-ए-खिज़ां की तरह ....
मुक्कमल कुछ नहीं इस जहां में
हैं अगर कुछ तो वो हैं...
तेरे मेरे सीने में धड़कते अफ़साने
जैसे ठहर के बैठे हों
अपने आशियाने में पंछी
पर फड़फड़ाते ,
इल्तिज़ा की तरह ।


(खिज़ां - autumn, decay )

(Picture Courtesy : Jatin Sharma )

Tuesday 21 October 2014

बदली है तो बस .....

गाँव तो हर कहीं के एक से हैं ,
एक सी मुस्कान , एक सा मुक़ाम
'ग़र बदली है तो बस ...
इंसान की सूरत ,
दिलों की फ़ितरत ,
राह के सन्नाटे ,
घी के बने परांठे ,
फूँस की छत ,
और अडान से झाँकने वाली
गौरैय्या के घौंसले की लत !

पंछियों के जागने का समय
सब जगह एक सा है ..
खेतों की रंगत पर भी
शक़ नहीं मुझको ...
बदली है तो बस ,
धरती के सीने पे उकेरी लकीर ,
कभी अनाज माँगने वाला फ़कीर ,
बैलों के घंटे की आवाज़ ,
मिट्टी को पसीने से सींचता जाबाज़ ,
शिकायतों का अपनापन ...
बुढापों में मौजूद बचपन !

बस जो बदली है ,
वो रूह की पहचान है ...
कहने को अब भी हम इंसान हैं
बाकी सब एक सा है ,
वही है....
जैसे चमकता , लीपा-पुता
सीना फुलाए खड़ा
अपनी ही तन्हाई से जूझता ..
एक ख़ाली मकान है !!

Wednesday 15 October 2014

कहानी





हर मोड़ एक ही कहानी है 
दिल में समुन्दर, चेहरा रूमानी है 
मुझे नहीं है शौक़ , डगमगाने का 
मेरी राह ही पत्थर की निशानी है

महज़ एक खेल नहीं है 
ये मन बहलाने का ज़रिया 
मामूली मशीयतों का किस्सा 
ये छोटी सी ज़िंदगानी है 

सांसो पे भी लगा सकता था पहरे
तुझे सब हक़-हुक़ूमत थी 
पर जा.… तुझको भी आज़ादी 
मेरी ये मेहरबानी है 

कुछ ख़ास न हो बेशक़ 
पर है मुझको अभी तक याद 
तुम्हारे "हम" का सलीक़ा 
मेरे इश्क़ की ज़ुबानी है 

मुझे टूट जाने का ख़ौफ़ है 
तुम्हारी क्या ख़ता इसमें…!
था मेरे ख़्वाबों का वो मुजस्सम 
 ख़्वाबों का मुजीब ही बेमानी है 

जला कर कई रातें.....
मैंने जागने का हुनर पाया 
नहीं कुछ मुफ़्त मिलता ; है पता 
पर यहाँ हर दिन क़ुर्बानी है 

दे कर जिस्म-जान-ज़ीस्त भी 
कहाँ वो पा सकी जन्नत 
सुन.…! तेरी जन्नत तेरा आपा 
वो दूसरा , बस एक ग़ुस्ताख़ कहानी है 






( मशीयतों - will, wishes
   मुजस्सम - embodied, incarnate
   मुजीब - motive, reason )

Saturday 11 October 2014

Sleepless Saturday #2

Tumhe kisso me bandh kar
Mehfooz rakh chodenge
panno aur kitabo ki god me ...
Tumhari hi tarah wo bhi fhir
gungi ban jaaengi..

Samjh nahi aata...
Kitabo ne tumse ye chuppi ka sabak seekha
ya tumne kitabo se !

Saturday 20 September 2014

इस तरह (sleepless saturday #1)

आँख तले चांदना किया
बदस्तूर चिराग जलाए रक्खा 
इस तरह, इंतज़ार में रात को जगाया मैंने 

बेज़ार लगता है कहना 
और ख्यालो को बेपर्दा करना 
इस तरह, तुम्हें कलम में छुपाया मैंने 







Tuesday 9 September 2014

आज फिर....

आज फिर...
वो ही ग़ज़ल सुन डाली
जो कभी तुम्हारे साथ के साथ सुनी थी 
वक़्त की करवट से पड़ी सिलवटों को न देखो तो 
इसका ख़ुलूस अब भी वही है। 


आज फिर 
मैं यूँ सज-संवर कर बैठी थी ,   जैसे तुम आओगे 
और न आए तो शायद कहीं से देख लोगे मुझे 
बड़ा ही मुनाफ़िक़ सा ख़याल है ये , पर 
दिल बहलाने को ख़ुशनुमा एहसास ज़रूरी है। 


आज फिर 
इस शहर के चक्कर लगाते 
उस मोड़ पर बसने वाली याद से जैसे टकरा गई 
कमान से छूटे तीर को क्या पकड़ पाओगे !
देखो ना ! तभी मैं नज़र बचा कर चली आई हूँ।  


आज फिर 
तुम्हारी तरबियत का असर है शायद 
या मेरी काबिलियत हावी मुझी पे 
महसूल की उगाही करते यहाँ हर एक कंधे के बदले लोग !
यूँ ही नहीं  इस ज़हानत-ऐ-जहां से अगवा हो जाने की ख़्वाहिश ।

आज फिर.......

Saturday 30 August 2014

by anonymous.... :)

Koi Aisa Pal Bhi Huwa Kare

Main Kahun To bas wo suna kare

Meri Fursatien Mere Mashghaley

Sabhi Apne Naam wo Likha Kare

Koi Baat Ho Kisi Shaam Ki

Koi Ziker Ho kisi Raat Ka

Jo sunane baithun use kabhi

Wo sune to sun ke hansa kere

jo main kahun chalo us nagar

jahan jugnuon ka huzoom ho

Wo palat ke dekhe meri taraf

Aur muskura ke pagal kaha kere !!!

Friday 29 August 2014

एक दिन.…

एक दिन.………

एक दिन हम फरार पत्तों से ....
छोड़ कर पेड़ों की पनाह
उलझ कर हवा से.…
अलविदा कह महफूज़ कोख़ को.....
उड़ जाएंगे लापता  … एक दिन।

एक दिन ख़ामोश बैठे हुए...
गीली रेत में लिपटे पाँव…
ख़ुशक हवा को ओढ़े ज़ुल्फ़
आँखों में नीलापन समेटे....
समुन्दर से सूरज उगाएँगे…  एक दिन।

एक दिन जब तनहा झोंके में.....
शगुफ़्ता गीतों की सरगम उगेगी
मेरे कानों को बस उसी की तलब.....
मदहोश सन्नाटों के जहां में.…
एक परछाईं से घर बनाऊँगी… एक दिन।

एक दिन मैं कदम बढ़ाऊँगी…
 कागज़ पे खुद बिछ जाऊँगी …
कलम से तुम्हें बनाऊँगी....
तस्वीर हो चाहे मुख़्तसर...
पर मैं तुम्हे समझ जाऊँगी… एक दिन।

एक दिन सब मुफ़्त होगा …
साँसो में न कुफ़्र होगा …
लह्ज़ो में न होगी तल्ख़ी  …
आँखों में लफ्ज़ भर के  …
हर कहानी को अंजाम दिखाऊँगी … एक दिन। 

Sunday 3 August 2014

मेरा तेरा






तेरा मुस्कुराना ,
मेरा हंस के टाल जाना ,
तेरा बात बढ़ाना ..,
मेरा पलट के वापिस आना
तेरा वो अल्हड़ सा सवाल,
मेरा वो बेफ़िक्र उड़ता जवाब..
तेरा फिर नज़दीकी का एहसास
मेरा महसूस करना कुछ ख़ास
तेरी जन्नतों की ख़्वाहिश
मेरी ख़्वाहिश तेरी जन्नत
तेरा हर वक़्त का ख़्याल
मेरे ख्यालो का बवाल
तेरा एक अजनबी सा साथ
मेरे लिए तारों वाली रात
तेरी पनाह मस्सरतों के घर
मेरी ज़ीस्त जिसके बिना बे-घर
तेरा एक दायरा पार करना
मेर लिए जैसे मरकज़ का बनना
तेरा मुझको खुद में शामिल करना
मुझको इस शरीक़ी में सबसे दूरी
तेरा आना जैसे दीयों में हरियाली
मुझको जलने में भी अब खुशहाली
तेरा कॉफ़ी की चुस्कियों में मिलने का वादा
मेरा मिठास में घुलने का इरादा
तेरा लफ़्ज़ों से ग़ैर-मुतासिराना
मेरा उन्हीं लफ़्ज़ों से दिल लगाना
……और फिर..............
तेरा राह गुज़रते भी न देना दरवाज़े पे दस्तक
मेरे लिए चौखटों में अब बसने लगी रौनक
तेरे लिए होंगे जैसे चेहरे हज़ार
मेरा तेरी चिंता में पिघलता विचार
तेरा फिर पलट कर आवाज़ न देना
मेरा बे-मक़सद रूठना-मनाना
तेरे लिए कश्मकश का दौर
मेरे लिए अजनबी ख़ामोशी का शोर
तेरे लिए एक मौके की चूक
मेरे लिए एक ज़िन्दगी गई गुज़र
तेरा एक खुरदुरी आवाज़ से रिश्ता
मेरा रक़ीब अब इस रिश्ते का बस्ता
तेरा मूक बंधन
मेरी दनदनाती रिहाई
तेरे ललाट का चन्दन
मेरे नूर की विदाई
तेरी मजबूरी के किस्से
मेरी डायरी के बने अब हिस्से
तेरा फिर बेहिस सा अंदाज़
मेरे ख़ौफ़ का बने इलाज़
तेरा जैसे ज़िम्मदारी से फ़ारिग होना
मेरा यकीन न हज़म कर पाना हनूज़
तेरा ग़फ़लत में चिलमिलाता चाँद
मुझको बेदारी में जगमगाता उन्मांद
तेरा वज़ूद जैसे बंजर ज़मीन
मेरा बरसता सावन का मौसम
तेरा वास्ता एक नई सड़क से
मेरा कच्चे रास्ते से प्यार
तेरा अनकही कहानी का मोह
मेरा कह दी गई से दुलार
तेरा अब यूँ रह जाएगा असर
मुझमें जैसे "भोले"पन का बसर
तेरा तुझमें सब यूँ का यूँ रह जाएगा
मेरा-तेरा न कभी था , न बन पाएगा।।

Monday 28 July 2014

वक़्त

जो आज है ,
वो कल में बदल जाएगा ,
ये एक वक़्त है,
कल वो वक़्त आएगा |

अभी इच्छाओं का ढेर है,
आशाओ का मेला,
उम्मीदों की जंजीरें हैं,
प्रश्नों का है रेला,
आज दुनिया को मेरी फिक्र है,
कल शायद कोई पूछने भी नहीं आएगा,
जो आज है ,
वो कल में बदल जाएगा ,
ये एक वक़्त है,
कल वो वक़्त आएगा |  

अनंत को निहारती नज़रें,
आप-धापी से गुज़रती राह,
अध-खुली खिड़की की रौनक,
बेफिक्री की चाह,
आज हुई जान-पहचान इस समय से,
कल मन इसकी आदत का वास्ता दे जाएगा
जो आज है ,
वो कल में बदल जाएगा ,
ये एक वक़्त है,
कल वो वक़्त आएगा |

चारों ओर है खामोशी,
भीतर तूफ़ान की तैयारी है,
ऐसे नहीं तो वैसे सही ,
पर ये रात बड़ी भारी है,
उजियारे की मारी रात है,
कदम तो लड़खड़ाएगा, 
और जो आज है,
वो कल में बदल जाएगा,
ये एक वक़्त है,
कल मेरा वक़्त आएगा ||

Thursday 24 July 2014

... तो फ़र्क पड़ता




मेरे चेहरे के उजाले क्यूँ तुमको बुलाते हैं ?
कभी मेरे मन का अँधेरा रिझाये तो फ़र्क पड़ता..


यूँ उगते हुए सूरज को निहारा सबने ..
कभी छिपते को सर झुकाते तो फ़र्क पड़ता..


तुम्हारे दिन ने अनेक चेहरो पे मुस्कान देखी है
कभी इस रात में सिलवटें गिन पाते तो फ़र्क पड़ता..


दोस्ती दर्द दरियादिली सभी देखा हमने
महसूस न हो जब कुछ,तब आह सुन जाते तो फ़र्क पड़ता..


राहें महकती थी, बागों में जब बहारें बिखरी थीं
पतझड़ में कोई तितली ही मानते तो फ़र्क पड़ता..


मेरी मुस्कान ठगती है दुनिया भर क चोचले..
लबों में दबी शिकायतों को सिल पाते तो फ़र्क पड़ता..


मुझे अब फ़र्क नहीं पड़ता , इसके आने उसके जाने से
'गर ठहाकों में ना गुम जाती हिचकियाँ तो फ़र्क पड़ता..

A poem by Surya Kumar Pandey





गॉंव में मैं गीत के आया, मुझे ऐसा लगा ,

मेरा खरापन शेष है .. 




वृक्ष था मैं एक , पतझड़ में रहा मधुमास सा ,

पत्र - फल के बीच यह जीवन जिया संन्यास सा ,


कोशिशें बेशक मुझे जड़ से मिटने की हुई ,


मेरा हरापन शेष है !




सीख पाया मैं नहीं इस दौर जीने की कला,

घोंट पाया स्वार्थ पल को भी मेरा गला ,


गागरें रीतीं न मेरी किसी प्यासे घाट पर ,


मेरा भरापन शेष है !

- Surya Kumar Pandey

ज़िन्दगी






एक ज़िन्दगी बिखरी पड़ी है हर कदम पर,
हम चले जा रहे हैं बेखबर

झूठ मूठ के चोचले
ना तेरे, ना मेरे घोंसले.. 

किस तरह एक ज़िन्दगी ज़ाया किये दे रहे हैं !!

Wednesday 23 July 2014

The Marriage thing and the difficult me :P ... A tribute from My bestie to me.. :P




This the reality check in fact.... This is the post my bestie wrote on facebook for me and see such a back-breaking task it is for me... ! Even she knows it well.. Life seems impossible.. Though its a satire only... but creates a concern as well.. 
Would come back with more soon.. till then bye .... :)





Monday 7 July 2014

Does it really happen ?





hmm... I don't know really , what's making me write this on such a beautiful morning and also that out of where such an aberrant thought popped up !
The story is that after all the bounces , ado's and mixup mystifications i witnessed taking shape and then messing it, abruptly in my life and some more people's life as well , I feel .. how difficult it is to fall in love..! or should say to "Simply fall in love " ! Its not simple in any case as it has to come with lots of compromises and settlements and one can't just fall in love simply for the reason that you only love someone.. it's a "go fifty-fifty deal" ! I think understanding the other person and keeping it easy as pie is all required without requiring any change in the person you decided to love in the very first go but how this feel changes into a long list of non-sense expectations which are not even obligatory to live and feel in high spirits as the fact is only air is needed to live.. specifically the oxygen and nothing else !!!!

To make oneself worthy to live in society .., normal people like me are required to consider a lot of facets to actually make our heart ready to love someone. Some of the major aspects are.. for example : the guy has to be from my community only as in the other case families won't accept it and he won't be able to be my groom ever and in India marriage is the ultimate agenda to prove a love successful.. (remember anjali saying in kuch kuch hota hai.. "mera pehla pyaar adhoora reh gaya !! " as rahul was going to tie knots with tina.!! Mr. Karan Johar donated so many witty notions..! ThankYou! :P ) . Another straight stuff is that sometimes marriage is the only "driving-force" to make you , take a header headlong jump into the emotion called love ., as they say if you would tie knots then love would automatically hook you up with each other. What if it never happened ? There would be no answer to it.. then its all your affair !  What i feel is that either you fall in love or not .., but this landing is comic! Possibility is that you may end up somewhere in mid .. and then its all your affair alone ! By this i don't intend to buoy up love marriage of course ! The point is the pointlessness of falling in love . A strange kind of uneasiness , comedown or overthrow probably it is for me. I am neither a non-believer or something like that nor do i ever felt less-loved. Shivji has a special grace on me and even i myself have a profusion of love-reserve in heart but still .. its an onerous job !
Besides the recollections of my 'delicate years' when days were full of fights, brawls and affrays , whereby i was found , entangled into some guy and pulling his hair , using all my might , sinew and "nails" to give my enemy a hard time ... there are certain other things as well for what i consider myself a stouthearted and nervy person. Even my childhood had a wide contrast..! At one moment i was this furious and on the other i was very serene, composed , all ready to drown in my favorite story books. Same personality clash i face now.. and still life is awesome ! ;)

I wonder if like bollywood first-sight-love even exists !Yes ! i agree that there can be first-sight infatuations or fad or something like a newest wrinkle over the surface of heart which would fade away as soon as the time-iron or reality check would take a toll.. but i feel love has nothing to do with the skin-color , or killer-looks or accomplishments of a person. Somehow i like the simple version of things and same line of thoughts applies here.
Love takes time to grasp me into it and I really admire people who takes less time to hammer out a deal and get the act together about it as life is already not with enough days to deal with other hassels and contentions. Why to decay it like this ? But still i wonder.., does it really happen..! and if it would ever make a sense for me as well !?! would definitely share the awe ... :)

Sunday 6 July 2014

ज़्यादा कुछ और नहीं...

ज़्यादा कुछ और नहीं.,
बेहतर बन जाऊँ याद हि मैं...
बेवक्त कि दस्तक बन मन में ,  कुछ तो हाल बताऊँगी । ।


न साया , न फ़ितरत...,
न हर कदम कि मैं राह बनूँ...
बस किसी से न कहना तुम..
जो आस पास मैं आन बसूँ...
जग हँसाई के नज़दीक ही कुछ
सिला गज़ब तुम पाओगे
और आख़िर में खुद कि ही,
नादानी पे मुरझाओगे ।

ज्यादा कुछ और नहीं..
बेहतर बन जाऊँ आवाज़ ही मैं..
ऊँची उठ उठ कर मैं.. लोगों का ध्यान बँटाऊँगी । ।

प्यार मोहब्बत कि छोड़ो
तुम दो पल बस अपने देना
मेरा दिल रखने कि ख़ातिर
उधार के कुछ ख़्वाब बोना
कह कर ऊँची आवाज़ में तुम
बस दुनिया का जी बहलाओगे
मेरा क्या जाने लायक अब रहा
क्या तुम ये खटास सह पाओगे ?


ज़्यादा कुछ और नहीं ,
बेहतर बन जाऊँ लाज ही मैं
इज़्ज़त की रखवाली करते, चाहे शहीद हो जाऊँगी । ।


किस्मत की गाँठों से परे
मैंने तुमको बुना ख़ुद में
जाने कब ये लम्हे
तारीक बने तेरी सुध में
घुँगरू सी बजती पैरों में
बेड़ीयों की शक्ल की ये पायल
मुँह से चाहे न आवाज़ आई
पर भीतर है कोई घायल ।

ज़्यादा कुछ और नहीं
बेहतर बन जाऊँ साज़ ही मैं
ले कर ज़ख्म खुद पर, संगीत सुरा लुटाऊँगी । ।


कुछ किस्से और कुछ बातें
मेरे दामन की नेमतें
और ख़याल करने की तुम
ना ही उठाओ अब ज़हमतें
मुझमें ज़ुर्रत पर बाकी है
रेशम नहीं, मेरी रात खाकी है
कल नया नवेला सूरज सजाना
खिड़की के कोने ने भी हाँ की है ।


ज़्यादा कुछ और नहीं
बेहतर बन जाऊँ आज ही मैं,
जो बीत गया तो भी , सीख बन साथ रह जाऊँगी । ।


उड़ता फिरता तेरे घर में
मदहोश सा मन कम्बख़त
किस रोज़ था बारिश का मौसम
लिखावट में बोलता तेरा वो ख़त
मैं छुप कर सबसे मुस्काती सी
उँगली में लट लिपटाती सी
हर शब्द पे कुछ इठलाती थी
खुद को हसीन बतलाती थी ।


ज़्यादा कुछ और नहीं
बेहतर बन जाऊँ काँच ही मैं
ख़ाक को गले लगा कर भी, न ख़ाक में शामिल कहलाऊँगी । ।


वो रस के दिन और रस की रात
धूप में पड़ी छोड़ देना
काग़ज़ -पत्ती में लिपटी यादें
बरसात में ही निचोड़ देना
नमुराद लफ्ज़ मुँह तक आए..
तो घूँट बना पी जाना तुम
कोइ खास नहीं, भूलो ऐसे
यूँ सांझ ढले जैसे मद्द्धम ।


ज़्यादा कुछ और नहीं
बेहतर बन जाऊँ आभास ही मैं
रंग बदलते मौसम का रंग तुम्हें बतलाऊँगी..। । 

Wednesday 2 July 2014

कुछ मसले....

कुछ मसले तुझसे कहने के
कुछ मसले बस चुप रहने के ।


कुछ मसले पल भर की मुस्कान
कुछ मसले बस जैसे पहचान ।


कुछ मसले उम्मीदों के घर
कुछ मसले मायुसी के मंज़र ।


कुछ मसले इंतज़ार की आड़
कुछ मसले हैं नखरों की बाढ़ ।


कुछ मसले पानी का ज़र्रा
कुछ मसले आसमान गहरा ।


कुछ मसले लत्ते कपड़े की फ़िक्र
कुछ मसले हैं बंगलों का ज़िक्र ।


कुछ मसले आंखों का पानी
कुछ मसले हँसी है रूमानी ।


कुछ मसले नज़दीकी के घर
कुछ मसले दूरी के क़हर ।


कुछ मसले "उसकी"  टेढ़ी नज़र
कुछ मसले हालातों के सर ।


कुछ मसले हैं हल के नज़दीक
कुछ मसले माँगे खात्मे की भीख ।


कुछ मसले आंखों की ज़ुबान
कुछ मसले माँगे खुद का बखान ।


कुछ मसले परिन्दों की वापसी
कुछ मसले विदेश की छाप सी ।


कुछ मसले खोजें कॉफ़ी की मेज़
कुछ मसले वक्त से भी तेज़ ।


कुछ मसले तेरी राह ताकते
कुछ मसले बस एक बोल को झांकते ।


कुछ मसले बिन कहे भी समझो
कुछ मसले.. अबके न जल के बुझो । ।

Wednesday 11 June 2014

जिया जाए ।




यूँ  उम्र निकली, अफ़सानो में जीते आई हूँ

हर किसी के पढ़ाए कसीदे पीते आई हूँ

चलो इस बार कुछ ना किया जाए.....

और सिर्फ....... जिया जाए.....

Tuesday 3 June 2014

मुखौटे




लोगों को खुश रखने कि ख़ातिर
रुख़ों की बेरुखी मिटाने को
इश्क में बौराए मन की मानिन्द...
मैंने मुखौटौं में समेट दिया खुद को
पर.....
यद्ददाशत साथ छोड़ रही है अब
मुखौटों में रहते रहते...
अपनी ही असली रंगत
अब मुझे ही याद नहीं....

Thursday 24 April 2014

उसी पहाड़ पर...







बहते बादलों के बीच 

चमकती धार के नज़दीक
टूटी फूटी हिंदी में उलझती
मचलते रास्ते में सुलझती
बे मतलब बे परवाह सी
कभी लगता है आगाह सी
.......
मैं खुद को छोड़ आई हूँ..
वहीँ .... उसी पहाड़ पर...

Thursday 16 January 2014

बचपन




मैं अक्सर फुर्सतों के पल चुरा कर बैठ जाती हूँ
भटकते मन के सवालों को यूँ ही मानती हूँ

कि कागज़ कि कश्ती के ज़माने याद आते हैं
बेतुकी ज़िद्द के दिन, आज मेरा बचपन कहाते हैं

बहुत ही नाज़ से जिसको संभाले चल रहा ये मन
बेफिक्री का क्या आलम , न रहती चोट कि चुभन

न था सो जान का शिक़वा, न ही खो जाने का था डर
बस थी नीम कि टहनी , और झूले का वो सफ़र

घरौंदा रेत का बनता.., कभी बनता था परदे का
चमकती धूप के दिन थे, न था मौसम वो सर्दे का

न थी बालों कि बनावट हमारे , हमारे खेल का हिस्सा
न रंग -रूप बनता था, फुसफुसाती आवाज़ों का किस्सा

तभी उस ओर से हमको बीन कि धुन सुनाई दी
साँप का खेल होता था , थी बहती जब पुरवाई

हाट जाने को मिलता दो-का-सिक्का मुँह को सिलता  था
मुट्ठी-भर गेंहू के बदले, बरफ़ का गोला मिलता था

रास्ता बहती पगडण्डी का था अल्हड़-सा , फूहड़-सा
निगोड़ी चप्पल में आ अटका कोई पत्थर सा

बसी उस राह में जो थी, आज़ादी कि धूल थी
नहीं अब छू पाती मुझे वो, मैं अब गुल का फूल थी

न अब वो नीम फैला है, न रिमझिम बरसता आँगन
खड़े हैं ईंट के किले , शायद खो गया बचपन

अब उस चौखट के, दरवाज़े के नए रंग चमकते हैं
तुम कौन हो ? क्यों आए ?.., ये सवाल करते हैं

पर मैं आज भी नहीं डरती रेत के टीले बनाने से
सड़क बनी पगडंडी को, चाहने से, अपनाने से

इसी तरह रंगों का वही संसार बन जाएगा
अटारी पे फिर से चढ़ कर कोई गीत गाएगा

अब भी मुझमें जीता है, रचा-बसा है कच्चापन
जो हर बार लौट आता है.., खिलता-खेलता बचपन