Wednesday 23 September 2015

कोई जूनून चाहिए

कोई जूनून चाहिए कोई फ़ितूर चाहिए 
कामयाबी को गिर के उठने का दस्तूर चाहिए 

मेरी आवारगी से न खौफ़ खा मालिक 
तुझे लगाम पे है भरोसा भरपूर चाहिए 

आपे में न भर के रखना कोई दर्द बेरुखी 
अना अश्क़ की बह जानी ज़रूर चाहिए 

मेरी कसकती नब्ज़ दबाने की उनकी थी ख़्वाहिश 
खुद जीने को जिनके मिजाज़ को ग़ुरूर चाहिए 

दूर टूट कर गिरता हुआ तारा नहीं रूह मेरी 
चुभे तो लहू पी जाए , वो नूर चाहिए 

मैं अँधेरा सही , कोई रंग न मुझपे फ़तह पाएगा 
सफ़ेद को कालिख़ का बस एक कसूर चाहिए 

तुम जो आए देखने मुड़ कर हाल मेरा एक दफ़े ही 
तिफ़्ल दिल को जीने को और क्या हुज़ूर चाहिए 

था एक पत्थर मेरा ख़ुदा और फ़ितरत निभाता दिल 
ज़ख्म खाए बिना नहीं आदत ये होनी दूर चाहिए 

है सच ! वो सख़्श न कर सकेगा मुझे माफ़ ! 
इस कुशाद-दिली को माँ-सा दिल मजबूर चाहिए 

Tuesday 8 September 2015

कारवाँ

एक  धूल छोड़ जाता है 
हवा के दामन में 
क्या इसके सिवा पाइए 
गुज़रे जो कोई कारवाँ 

कोई रात का हिस्सा होगा 
कोई दिन होगा अलसाया सा 
बस ये ही सामान है 
संग ढ़ोता अपने कारवाँ 

मासूमियत के पलने में
खेली थी तिफ़्ल सी हसरत
दिन डूबे तो दिल सा मुरझाया
उम्र सा थका है कारवाँ

कुछ बात ले के आया था
कुछ याद दे के जाएगा
आई-गई दुनिया 'औ तुमसा
रिवायतों का मारा कारवाँ

चलना ही है मक़सद  यहाँ
मुस्तक़िल कुछ भी नहीं
पानी के शहर  छोड़ने को
मजबूर है ये कारवाँ

कोई अदावत का ग़िला नहीं
कोई दोस्ती का सिला नहीं
एक रुकी हुई सी राह का
हमसफ़र रहा है कारवाँ

Monday 7 September 2015

क्या ओढूँ

क्या ओढूँ और कितना ओढूँ
कहाँ कहाँ से ये तन ढाँपू 
किस कीचड़ से पाँव बचाऊँ 
किसको देख नाक-भौं सिकोडूँ 
खोकले से शरीर के भीतर 
मन कबूतर सा सहमा ठहरा 
इसको किसके पते पे भेजूँ 
किस दिशा में इसको छोडूँ  ! 
सब रंगों से काला मेरा रंग 
गहरा पर न बदन सुहाए 
उसपर औरत ज़ात के बंधन 
किसको पालूं , किससे मुँह मोडूँ 
सूरज को ढँक के उँगली से 
कर दी थी इस दिन की शाम 
एतमाद की दीवार बनाई 
जंगले की टोह में इसको ही तोड़ूँ 
पुर्ज़ा -पुर्ज़ा कर जिसे बटोरा 
कड़वा-कसैला दिन पिघलाया 
फ़िर शाम बरसी , दिन फूला 
अब गीली रात का दामन निचोड़ूँ 
कोई खेल नहीं है मैं होना 
और मैं भी तो एक खेल ही हूँ 
झूठे किरदारों में बसी रही 
एक एक कर इनका गला मरोड़ूँ !!!

Saturday 5 September 2015

नहीं नफ़रतों से हासिल कुछ

नहीं नफ़रतों से हासिल कुछ भी जब किसी को 
तो कैसे घोंसला तोड़ देता है कोई परिंदों का 

 किसी के शौक बिकते हैं हाट में झिलमिलाते 
 कोई ज़रूरतें जुटाता है भीख सा - चंदों सा 

है शुक्र कि बाकी है इतनी इंसानियत - ऐ -मोहब्बत 
दिल दुखता है जो सर कटे नापाक दरिंदों का 

मेरे सर पे ऐसे रख दो मोर-मुकुट प्यारे 
कुछ बोझ कम हो जाए , सांस आए ज़िन्दों सा 

अच्छा आदमी होने का एक भ्रम-सा है मैंने पला 
जिस क़ैद में रहता है , वो एक जाल है पसंदों का 

किस ओर मेरा घर है ? था किस धार मुझको बहना ?!? 
बस वो डगर मिला दे मालिक , जहाँ शहर तेरे बन्दों का