Friday 17 February 2017

तेरी नज़र की कलम


तेरी नज़र की कलम अब वो नज़्म नहीं लिखती

जिसके हर मोड़-मिसरे पे कभी मेरा ठिकाना था


सच है , कागज़ की कश्ती की उम्र बहुत नहीं होती

पर दिल के सुकून का ये मश्ग़ला पुश्तों पुराना था


सफ़ेद चादर की दीवारों में मैंने खुद को खोया था

मेरी कलम में उतर आएगा ये जो भी फ़साना था


इस जहाँ से उस जहाँ को जोड़ती हैं बस साँसें

जो साँसों तक सिमटे , क्या इश्क़ फरमाना था  ?


अभी तू खुश हो जा कातिल , चेहरे को रौनक दे !

तेरे इस बेकदर कहर का भी अंजाम आना था


बहुत मिल जाएंगे मुझे तुझसे , तुझे मुझसे लेकिन

मुझे तुझसा , यूँ मिल के भूलने का , हुनर कमाना था


नहीं कोई कहानी है , तेरे मेरे हिस्से आई

पर लगता है की जैसे कोई एक पूरा ज़माना था  


मुझे यादों से यूँ तो कोई ज़्यादती नहीं तकलीफ

पर जैसे जान पे बनी थीइनका  कर  जाना था  ||


-अनुष्का