Saturday 30 May 2015

वो एक लम्बी नदी सी


वो एक लम्बी नदी सी बिछी हुई है ज़मीं पे
उफ़ान का मौसम है , ये बदली भी बरसती है

उसे फ़लक पे जकड़ो चाहे , या ढूँढो गर्भ में धरती के
एक बूँद है बारिश की  , मुट्ठियों में कहाँ फंसती है

आज किसी के हुए जाते हैं , कल के बड़े वादे हैं
ये गुलज़ार सा रास्ता है , पर वफ़ा बड़ी सस्ती है

अभी कच्चे हैं पर सादे हैं, सागर से इरादे हैं
किस किस का मुँह ताकेंगे ! अब बस मैं-मेरी कश्ती है

 नुक़्ताचीन है दुनिया ! सबकी अपनी कहानी है
उस राह मिलूंगी मैं , जहाँ से शाम गुज़रती है

Wednesday 27 May 2015

मेरे नानी नाना

मेरी गर्मी की छुट्टियों का एक बहाना हैं वो 
एक  पूरा अनदेखा ज़माना हैं वो 
कभी किस्सों की एक लम्बी किताब 
और छोटा सा मासूम तराना हैं वो 
मेरे नानी नाना 👵👴❤️

नाक पे ऐनक का ठिकाना हैं वो 
 एक पूरी सदी का अफ़साना हैं वो 
मुँह में नकली दाँतों की खिटपिट लिए 
हर बात में किसी सीख का कह जाना हैं वो 
मेरे नानी नाना 

आज भी रेडियो-समाचार का इंतज़ार हैं वो 
सूती के हलके रंगों में बसता प्यार हैं वो 
"ये निश्चित है !" की टेक लिए 
हर बात की निश्चित्ता का अधिकार हैं वो 
मेरे नानी नाना

सर पे अनुभव के सफ़ेद साल हैं वो
चेहरे पे लकीरों के बवाल हैं वो
हाथों में छुपाए अनेकों दुआएँ
बचपन के मेरे खेलों के कमाल हैं वो
मेरे नानी नाना

मेरे बालों में तेल न डालने पर नाराज़गी हैं वो
नीम के उस पेड़ सी ताज़गी हैं वो
जब मैं एक बार बीमार हुई थी !
भगवान से लड़ जाने वाली आवारगी हैं वो
मेरे नानी नाना


कभी एक दबी सी शिकायत हैं वो 
कभी गला फाड़ती कहावत हैं वो 
बदलाव की बयार में जो ढहने लगी है 
उस पुरानी हवेली की बनावट हैं वो 
मेरे नानी नाना 


Wednesday 20 May 2015

नया इश्क़ चलाओ

मैं एक ग़ज़ल कहूँ
और तुम आओ 
है लगती ख़ाक ज़िन्दगी 
कभी तुम इसको सजाओ 

दूर आसमानों पे 
गज़ब  सुरमयी पहरा 
है उलझी ज़ुल्फ़ बे-ढंगी 
कभी तुम इसको सुलझाओ 

मेरे कदमों पे लिखी है 
कहानी एक सफर की 
इनका आवारापन पी लो 
अपना पता बतलाओ 

इस ज़माने की मानिंद 
न रखना जिस्म को नज़र 
तोड़ो तुम ये रवायत 
नया इश्क़ चलाओ 

तुम अब भी वही हो



जब भी तुम्हें देखती हूँ
एहसास होता है 
तुम अब भी वही हो ...

मासूम सी आँखें 
शरारत भरी मुस्कान 
वो लाल जैकेट का खड़ा कॉलर 
और, बालों का वही स्टाइल 
वही बेकूफ सा फूहड़ लड़का ..

पर अफ़सोस है 
की ज़िन्दगी अपनी यूँ ही बिताओगे 
काले चश्मे से ही धूप छिपाओगे 
मुझसा मुक़द्दस मुख़लिस नहीं पाओगे 
एक दिन ये समझ जाओगे 

तुम आज भी उतने ही जाहिल हो 
रिश्तों के ख़लूस से महरूम 
बाज़दफा फिर भी लगता था  
अलाहदा है सबसे तुम्हारा ज़िक्र 
शायद न समझ पाई तुमको ; थी फ़िक्र 


पर आज.....

आओ तुम्हें माथे पे बोसा  दे 
विदा कर दूँ इस बवंडर के परे 
सुनो , तुममें-मुझमें बस ये ही एक-सा है 
मैं आज भी वही हूँ 
और तुम अब भी वही हो 

Monday 18 May 2015

कुछ तुम , कुछ मैं !!



कुछ तुम कह लेना 
कुछ मैं सुन लूँगी 
एक ग़ज़ल सी , स्याही में घुल कर 
किताबों में गुनगुनाउँगी 
और उधड़े ख़्वाब बुन जाऊँगी  

कुछ तुम मेरे पास आओगे
कुछ मैं पास आऊँगी
फिर तारीक़ बंद कमरों में
जाने कितनी रातें जला कर
रोशिनी को पी जाऊँगी  

कुछ को समझौतों का नाम देंगे
कुछ को कह देंगे वक़्त की ज़रूरत
फिर दोस्ती के वरक में
कुछ ज़्यादा को लपेट कर
मन के टूटे कनस्तर में रख भूल जाऊँगी  

कुछ तुम तवाज़ुन बरतना
कुछ मैं  कदम जमाऊँगी
बारिशों के मौसम में
एक बार जो पौधा लगाया था
उसी के हरे खून में बेतुक रंगी जाऊंगी  




Saturday 9 May 2015

उस घर में


कुछ धूल में लिपटे फ्रेम 
और फ्रेम में जड़ी काई 
एक दीवार जिसके सहारे 
सिसकियों में रात बिताई 
बस ये ही कुछ याद है 
जो छोड़ आई हूँ मैं 
अपने पीछे 
उस घर में

वो छज्जा जहाँ बार बार 
घर बनाता था कबूतर का जोड़ा 
हर बार मैं झुँझलाई 
हर बार तिनकों को तोड़ा 
बचा खुचा समेट कर अपना 
उनका घर बसा आई हूँ मैं 
अपने पीछे 
उस घर में 

कुछ टूटने का डर कभी 
कोई अजल-गिरिफ़्ता चिंता 
वक़्त के पुर्ज़े लटकाने को 
की दीवारों पे चोट चुनिंदा 
उनके निशाँ न मिटा पाई 
पर वो सुराख़ भर आई हूँ मैं 
अपने पीछे 
उस घर में 

रस्सी से बाँधती थी 
बरामदे में पुरवाई 
तौलिये में समेट लेती 
ज़ुल्फों की अल्हड़ अंगड़ाई 
जिनमें संसार बाँधा था 
वो गिरहें खोल आई हूँ मैं 
अपने पीछे 
उस घर में 

एक झरोखा उस कमरे का 
पहली किरण जिसको चूमा करती थी 
एक गिलहरी लुका-छुपी में 
नयन मटकाए झूमा करती थी 
हटा कर गत्ते-कागज़ की आड़ 
उसको भी आज़ाद कर आई हूँ मैं 
अपने पीछे 
उस घर में 





मेरे सपने

मेरे सपने 
नहीं हैं सरसों के पीले खेतों के 
न बाज़ार में बिकते भेदों के 
ये तो बस हरियाली के दीवाने हैं 

मेरे सपने 
न ऊँची कनक मुंडेरों के 
न कागज़ के टुकड़ों के डेरों के 
बस रिश्तों की आँच पे पकी मिट्टी के अफ़साने हैं 

मेरे सपने 
आसमान पे किस्मत के तारे नहीं 
राह देखते मूक किनारे नहीं 
ज़मीन के सीने में बसी खुशबू के तराने हैं 

मेरे सपने 
नहीं हैं काजल बिंदी गहने चूड़ियाँ 
मन को जकड़े छलिया बेड़ियाँ 
ये चेहरे पे रैशन मुस्कान के  पैमाने हैं 

मेरे सपने 
न तुमसे जुडी यादों का पुलिंदा कोई 
न प्रेम नगर का बाशिंदा कोई 
अनकही कहानी और पिया के बंधन बचकाने हैं 

मेरे सपने 
इश्क़ नहीं कोई सोचा समझा 
न फटी पतंग का उलझा मांझा 
भटक कर खुद को पाने के सफ़र सुहाने हैं  

Monday 4 May 2015

और ही रंग था ...

और ही रंग था उस दौर का क्या हाल बताएँ 
जब हम आँख तले सपनों का बाज़ार सजाते थे 

रूह जुबां पे बसती थी , चोट आँखों में हंसती थी 
और खेल को बस हम ज़ख्मों का ज़िम्मेदार बताते थे

जब क़द्र थी भूक-प्यास की , मिजाज़ की , एहसास की 
जब आसमां से टपकते पानी को हम प्यास बताते थे 

सफ़ेद कागज़ पे लिखते थे शौक़ , ख़्वाब , नज़ाकत 
किसी के बहते आँसू हमको बेज़ार सताते थे 

राहों पे लिखी जाती थी सफर की कोई कहानी , 
किसी के लौट आने को , वक़्त का दिया जलाते थे 

मुझे वो "मैं " न मिले पर "मैं " के रंग पक्के हैं 
खोखले उसूलों की आज क्या ,कल भी हम ख़ाक उड़ाते थे