Thursday 1 October 2015

तुम्हारी बातें

तुम्हारी बातें


तुम्हारी बातें , जैसे
हर पहर की सॉंस
मौसमों का रास
रंगों का उजलापन
यौवन का कच्चापन
कुछ ठहरी , कुछ अनवरत
वरक की चमचमाती परत
कभी किसी किताब की उतरन
और मन में होती छन छन
कंचन सी कुछ पकी हुईं
कुछ खरीदी और बिकी हुईं
अक्सर न समझ आती हैं
न जाने कैसी ये बातें हैं !

Wednesday 23 September 2015

कोई जूनून चाहिए

कोई जूनून चाहिए कोई फ़ितूर चाहिए 
कामयाबी को गिर के उठने का दस्तूर चाहिए 

मेरी आवारगी से न खौफ़ खा मालिक 
तुझे लगाम पे है भरोसा भरपूर चाहिए 

आपे में न भर के रखना कोई दर्द बेरुखी 
अना अश्क़ की बह जानी ज़रूर चाहिए 

मेरी कसकती नब्ज़ दबाने की उनकी थी ख़्वाहिश 
खुद जीने को जिनके मिजाज़ को ग़ुरूर चाहिए 

दूर टूट कर गिरता हुआ तारा नहीं रूह मेरी 
चुभे तो लहू पी जाए , वो नूर चाहिए 

मैं अँधेरा सही , कोई रंग न मुझपे फ़तह पाएगा 
सफ़ेद को कालिख़ का बस एक कसूर चाहिए 

तुम जो आए देखने मुड़ कर हाल मेरा एक दफ़े ही 
तिफ़्ल दिल को जीने को और क्या हुज़ूर चाहिए 

था एक पत्थर मेरा ख़ुदा और फ़ितरत निभाता दिल 
ज़ख्म खाए बिना नहीं आदत ये होनी दूर चाहिए 

है सच ! वो सख़्श न कर सकेगा मुझे माफ़ ! 
इस कुशाद-दिली को माँ-सा दिल मजबूर चाहिए 

Tuesday 8 September 2015

कारवाँ

एक  धूल छोड़ जाता है 
हवा के दामन में 
क्या इसके सिवा पाइए 
गुज़रे जो कोई कारवाँ 

कोई रात का हिस्सा होगा 
कोई दिन होगा अलसाया सा 
बस ये ही सामान है 
संग ढ़ोता अपने कारवाँ 

मासूमियत के पलने में
खेली थी तिफ़्ल सी हसरत
दिन डूबे तो दिल सा मुरझाया
उम्र सा थका है कारवाँ

कुछ बात ले के आया था
कुछ याद दे के जाएगा
आई-गई दुनिया 'औ तुमसा
रिवायतों का मारा कारवाँ

चलना ही है मक़सद  यहाँ
मुस्तक़िल कुछ भी नहीं
पानी के शहर  छोड़ने को
मजबूर है ये कारवाँ

कोई अदावत का ग़िला नहीं
कोई दोस्ती का सिला नहीं
एक रुकी हुई सी राह का
हमसफ़र रहा है कारवाँ

Monday 7 September 2015

क्या ओढूँ

क्या ओढूँ और कितना ओढूँ
कहाँ कहाँ से ये तन ढाँपू 
किस कीचड़ से पाँव बचाऊँ 
किसको देख नाक-भौं सिकोडूँ 
खोकले से शरीर के भीतर 
मन कबूतर सा सहमा ठहरा 
इसको किसके पते पे भेजूँ 
किस दिशा में इसको छोडूँ  ! 
सब रंगों से काला मेरा रंग 
गहरा पर न बदन सुहाए 
उसपर औरत ज़ात के बंधन 
किसको पालूं , किससे मुँह मोडूँ 
सूरज को ढँक के उँगली से 
कर दी थी इस दिन की शाम 
एतमाद की दीवार बनाई 
जंगले की टोह में इसको ही तोड़ूँ 
पुर्ज़ा -पुर्ज़ा कर जिसे बटोरा 
कड़वा-कसैला दिन पिघलाया 
फ़िर शाम बरसी , दिन फूला 
अब गीली रात का दामन निचोड़ूँ 
कोई खेल नहीं है मैं होना 
और मैं भी तो एक खेल ही हूँ 
झूठे किरदारों में बसी रही 
एक एक कर इनका गला मरोड़ूँ !!!

Saturday 5 September 2015

नहीं नफ़रतों से हासिल कुछ

नहीं नफ़रतों से हासिल कुछ भी जब किसी को 
तो कैसे घोंसला तोड़ देता है कोई परिंदों का 

 किसी के शौक बिकते हैं हाट में झिलमिलाते 
 कोई ज़रूरतें जुटाता है भीख सा - चंदों सा 

है शुक्र कि बाकी है इतनी इंसानियत - ऐ -मोहब्बत 
दिल दुखता है जो सर कटे नापाक दरिंदों का 

मेरे सर पे ऐसे रख दो मोर-मुकुट प्यारे 
कुछ बोझ कम हो जाए , सांस आए ज़िन्दों सा 

अच्छा आदमी होने का एक भ्रम-सा है मैंने पला 
जिस क़ैद में रहता है , वो एक जाल है पसंदों का 

किस ओर मेरा घर है ? था किस धार मुझको बहना ?!? 
बस वो डगर मिला दे मालिक , जहाँ शहर तेरे बन्दों का 

Friday 21 August 2015

न जाने कहाँ बादलों ने



 न जाने कहाँ बादलों ने क़हर ढाया है !
मेरे घर से तो एक ऐमन आसमां ही दिखता है

अब कब तक सुनते वो भी दास्तां-ए-अल्मिया
यहाँ हर आदमी में एक मंसूख शहर दिखता है

फ़ौत हो जाते हैं इश्क़ में , कितने ख़्वाब कहानी किस्से
और जंग में हर सख़्श एक रंग दिखता है

दूर से ही भाती हैं दरवेशनियाँ और फकीरनियाँ सबको
लिबास-ए-ज़िन्दगी में बीवी का ही बटन टिकता है

 न कोई चाह सका मेरे ये कालिख़ पुते चेहरे
यहाँ आइनों में भी रौशन-ज़बीं बदन बिकता है

मन के तारों से जुड़ जाते , ऐसे नहीं हैं लोग यहाँ
ज़र की भट्टी में रिश्ते - नातों का ज़मीर सिंकता है



(ऐमन - safe, secure, happy
अल्मिया - tragedy
मंसूख - abolished
फ़ौत - to die, dead
दरवेशनियाँ - it means mendicant, a saint, but here it is intended to use in the meaning of a scholar lady, a lady who is intelligent, ambitious, a flapper, depend on herself always, and know how to stand for the things in which she believes in., and do not much about a world out there.
रौशन-ज़बीं - bright faced
ज़र - money )

मज़हबों के परे कोई इश्क़




मज़हबों के परे कोई इश्क़ जो बसा है
जहाँ होली दिवाली ईद बैसाखी , एक जैसा ही नशा है 
एक ही माँ है हम सबकी , 
एक ही हम सबका खुदा है
कभी पगड़ी , कभी टोपी , कभी बुरखों में कसा है
अर्श से फर्श तक लिखी कहानी क़ुर्बानी की 
ख़ातिर मिट्टी की सब खोने अब हमारी परीक्षा है
हमारा दिमाग हवा इश्क़ दरिया और दिल शीशा है
भारत के हम वासी बस काफ़ी ये ज़ुनून सा है
छू लेंगे हम किसी रोज़ , वो आसमां भी 
किसी सच्ची सी आज़ादी का जहाँ कहकशां है



Friday 14 August 2015

A small tribute to Missile Man - APJ Abdul Kalam




वो जैसे लगता है ना
की सर से कोई साया छिन जाए
घर का कोई बड़ा न हो तो
आँगन रौनक बिन सताए
बूढ़ी आँखों से देखी थी
जैसी दुनिया तुमने अब तक
उन किस्सों का ये चाव
मन न भूले से भुला पाए
जिसके होने से लगता हो
कोई है, तो है सब सुरक्षित
और न दिखे जो छड़ी कोने में
तो घर सूना चिल्लाए 

ऐसे ही तुम थे
मेरे देश के लिए ... पिता 

उन बेहद चंद दिनों में से एक
जब किस्मत अपने चरम पर थी
और मैं उनसे मिली ...
a man ... inspiration-patriotism-morality-personified! a man who lived a life above all that they call religion and community...
May his soul rest in peace

सिर्फ एक अच्छे रिश्ते

सिर्फ एक अच्छे  रिश्ते के तराज़ू में न तौलिये मेरी आक़बत 
 कुछ दिन को भाड़ में सब उसूल अब  जाएँ 

कल ऐसा करेंगे , परसों वैसा करेंगे !
इस आज का क्या करिये ? अव्वल ये धूल हटाएं

परिंदों को मिली है बेपरवाह उड़ान की सलाहियत
हम भी उड़ने लगें , जो सरहदों के नक्श भूल जाएं

मोहब्बत-नामे कई लिखे , और उड़ाए आसमां की ओर
एक-तरफ़ा सी वहशत है , ना मन क़बूल कर पाए

सबने जो मजबूरियां उठा कर लटका दी उसके गले में
वो ख़ुदा है ! उसको तो ये फूल ही नज़र आएं





Thursday 25 June 2015

नहीं मायूसियों में यूँ ही घुलते जाइए




नहीं मायूसियों में यूँ ही  घुलते जाइए 
संभावनाओं  का  नगर है , चले आइये 
किस्मतों पे लगे ताले की चाबी है जुनूं तेरा 
जो कदम बढ़ाइये , तो रुक नहीं फिर जाइये 


दिल लगाया है तो टूटने का डर नहीं करना 
आने-जाने हैं ये लोग इनमें घर नहीं करना 
बिन चोट खाए , न सीख पाए , ये हुनर कोई 
जो इश्क़ है तो इश्क़ के सभी रिवाज़ निभाइए 


शब-भर हैं बरसे बादल जैसे हैं कोई सपना  
इन इतने अपनों में , जाने कौन है अपना !
मुस्कान लबों पे, चेहरे पे सादगी की रौनक़ 
बेदर्द ज़माने को यही हाल दिखाइए 


दरगाह पे जो हैं बांधे मन्नतों के धागे 
और दिए जलाए कितने उसकी जन्नतों के आगे 
किसी झोंके से बुझ जाएं तो वहम  नहीं करना 
धागों के खुलने की  आस में न उम्र गँवाइये 


ये आज की बातें और ये आज के हम-तुम 
मासूम किसी घाव पे , लग रहा मरहम 
ये सिर्फ़ मेरा है , मुझमें पोशीदा सा शामिल
हर सफ़्हे कलम की स्याही में , इसको पाइए 


एक उम्र मु'यस्सिर नहीं , क़र्ज़ चुकाने को 
हर काम जो करते हो बस 'फ़र्ज़' निभाने को 
कभी सिर्फ़ यूँ-ही हँस दीजिये , ज़िन्दगी तोहफ़ा है 
पीछे छोड़ के सब दर्द-गुमां , सिर्फ़ आप आइये ..  


अना-परस्त हैं आँखें , न मुड़ कर भी देखेंगी 
सब सूखी यादें एक दिन , ये निकाल फेकेंगी 
मेरी बेरुखी जब तुम कभी देखोगे तो जानोगे 
एक जिस्म , कई इंसान हूँ , आप जान बचाइये !!



पोशीदा - invisible
मु'यस्सिर - effective
अना-परस्त - egoist

Saturday 20 June 2015

मैं इंसान हूँ ! -- For all the lovely girls and ladies and woman out there !



नहीं कोई ठोकर खाया पाँव हूँ 
न ही नासूर बनता घाव हूँ 
नहीं कोई जल गई रोटी की ज़िल्लत 
न ही छोटे बालों की फजीहत
न मेरे गेंहुए रंग को लजाइये
वो आड़ी-तिरछी लिखावट पर मत जाइए
शायद डिग्रियों का ढेर न हो पाऊँ
और सलीके से शायद हर बात न कह पाऊँ
नहीं हूँ केवल अंग्रेजी बोलते हिचकते होंठ
और बदन एक छुपा सा , सलवार कमीज की ओट
नहीं कोई अक्षर एक कंधे पे गुदा हुआ
न ही सुनहरे-रंगे बालों में कुछ छुपा हुआ
इस घर में ठहरे कुछ  सालों की मेहमान नहीं
चेहरे कम देखे हों , फितरतों से अनजान नहीं
 मोटर दौड़ाती कोई वाहियात ग़लती नहीं हूँ
हमेशा ही आँसू देख कर पिघलती नहीं हूँ




मैं आँखों में चमकते सितारे हूँ
जिस्म में छुपे हिरन मतवारे हूँ
ख्यालों का बंजारापन हूँ
वक़्त से कदम मिलाता आवारापन हूँ
ये चूड़ी बिंदी गहने-गांठे मेरे अरमान हैं
फिर मैंने ही तुमको अर्पित किये सम्मान हैं
मैं हूँ मुस्कानों के कंवल
मेरे आँखों में बसते कल के महल
मैं कर्तव्यों को खुद में समाये एक जहां हूँ
न कोई देवी , न धरोहर , न ही महान हूँ
ग़लतियों पर झेंपती , फिर नई दौड़ को तैयार हूँ
अश्क़ों को नहीं मैं बनाती हथियार हूँ
तस्वीरों  में खुद को क़ैद करती एक याद हूँ
ये कालिख़ आपकी नज़रों से हट जाए, ये फ़रियाद हूँ
कोई उलझी पहेली नहीं, एक कहानी आसान हूँ
एक छोटी सी सूचना  , सबसे पहले मैं एक इंसान हूँ

Saturday 30 May 2015

वो एक लम्बी नदी सी


वो एक लम्बी नदी सी बिछी हुई है ज़मीं पे
उफ़ान का मौसम है , ये बदली भी बरसती है

उसे फ़लक पे जकड़ो चाहे , या ढूँढो गर्भ में धरती के
एक बूँद है बारिश की  , मुट्ठियों में कहाँ फंसती है

आज किसी के हुए जाते हैं , कल के बड़े वादे हैं
ये गुलज़ार सा रास्ता है , पर वफ़ा बड़ी सस्ती है

अभी कच्चे हैं पर सादे हैं, सागर से इरादे हैं
किस किस का मुँह ताकेंगे ! अब बस मैं-मेरी कश्ती है

 नुक़्ताचीन है दुनिया ! सबकी अपनी कहानी है
उस राह मिलूंगी मैं , जहाँ से शाम गुज़रती है

Wednesday 27 May 2015

मेरे नानी नाना

मेरी गर्मी की छुट्टियों का एक बहाना हैं वो 
एक  पूरा अनदेखा ज़माना हैं वो 
कभी किस्सों की एक लम्बी किताब 
और छोटा सा मासूम तराना हैं वो 
मेरे नानी नाना 👵👴❤️

नाक पे ऐनक का ठिकाना हैं वो 
 एक पूरी सदी का अफ़साना हैं वो 
मुँह में नकली दाँतों की खिटपिट लिए 
हर बात में किसी सीख का कह जाना हैं वो 
मेरे नानी नाना 

आज भी रेडियो-समाचार का इंतज़ार हैं वो 
सूती के हलके रंगों में बसता प्यार हैं वो 
"ये निश्चित है !" की टेक लिए 
हर बात की निश्चित्ता का अधिकार हैं वो 
मेरे नानी नाना

सर पे अनुभव के सफ़ेद साल हैं वो
चेहरे पे लकीरों के बवाल हैं वो
हाथों में छुपाए अनेकों दुआएँ
बचपन के मेरे खेलों के कमाल हैं वो
मेरे नानी नाना

मेरे बालों में तेल न डालने पर नाराज़गी हैं वो
नीम के उस पेड़ सी ताज़गी हैं वो
जब मैं एक बार बीमार हुई थी !
भगवान से लड़ जाने वाली आवारगी हैं वो
मेरे नानी नाना


कभी एक दबी सी शिकायत हैं वो 
कभी गला फाड़ती कहावत हैं वो 
बदलाव की बयार में जो ढहने लगी है 
उस पुरानी हवेली की बनावट हैं वो 
मेरे नानी नाना 


Wednesday 20 May 2015

नया इश्क़ चलाओ

मैं एक ग़ज़ल कहूँ
और तुम आओ 
है लगती ख़ाक ज़िन्दगी 
कभी तुम इसको सजाओ 

दूर आसमानों पे 
गज़ब  सुरमयी पहरा 
है उलझी ज़ुल्फ़ बे-ढंगी 
कभी तुम इसको सुलझाओ 

मेरे कदमों पे लिखी है 
कहानी एक सफर की 
इनका आवारापन पी लो 
अपना पता बतलाओ 

इस ज़माने की मानिंद 
न रखना जिस्म को नज़र 
तोड़ो तुम ये रवायत 
नया इश्क़ चलाओ 

तुम अब भी वही हो



जब भी तुम्हें देखती हूँ
एहसास होता है 
तुम अब भी वही हो ...

मासूम सी आँखें 
शरारत भरी मुस्कान 
वो लाल जैकेट का खड़ा कॉलर 
और, बालों का वही स्टाइल 
वही बेकूफ सा फूहड़ लड़का ..

पर अफ़सोस है 
की ज़िन्दगी अपनी यूँ ही बिताओगे 
काले चश्मे से ही धूप छिपाओगे 
मुझसा मुक़द्दस मुख़लिस नहीं पाओगे 
एक दिन ये समझ जाओगे 

तुम आज भी उतने ही जाहिल हो 
रिश्तों के ख़लूस से महरूम 
बाज़दफा फिर भी लगता था  
अलाहदा है सबसे तुम्हारा ज़िक्र 
शायद न समझ पाई तुमको ; थी फ़िक्र 


पर आज.....

आओ तुम्हें माथे पे बोसा  दे 
विदा कर दूँ इस बवंडर के परे 
सुनो , तुममें-मुझमें बस ये ही एक-सा है 
मैं आज भी वही हूँ 
और तुम अब भी वही हो 

Monday 18 May 2015

कुछ तुम , कुछ मैं !!



कुछ तुम कह लेना 
कुछ मैं सुन लूँगी 
एक ग़ज़ल सी , स्याही में घुल कर 
किताबों में गुनगुनाउँगी 
और उधड़े ख़्वाब बुन जाऊँगी  

कुछ तुम मेरे पास आओगे
कुछ मैं पास आऊँगी
फिर तारीक़ बंद कमरों में
जाने कितनी रातें जला कर
रोशिनी को पी जाऊँगी  

कुछ को समझौतों का नाम देंगे
कुछ को कह देंगे वक़्त की ज़रूरत
फिर दोस्ती के वरक में
कुछ ज़्यादा को लपेट कर
मन के टूटे कनस्तर में रख भूल जाऊँगी  

कुछ तुम तवाज़ुन बरतना
कुछ मैं  कदम जमाऊँगी
बारिशों के मौसम में
एक बार जो पौधा लगाया था
उसी के हरे खून में बेतुक रंगी जाऊंगी  




Saturday 9 May 2015

उस घर में


कुछ धूल में लिपटे फ्रेम 
और फ्रेम में जड़ी काई 
एक दीवार जिसके सहारे 
सिसकियों में रात बिताई 
बस ये ही कुछ याद है 
जो छोड़ आई हूँ मैं 
अपने पीछे 
उस घर में

वो छज्जा जहाँ बार बार 
घर बनाता था कबूतर का जोड़ा 
हर बार मैं झुँझलाई 
हर बार तिनकों को तोड़ा 
बचा खुचा समेट कर अपना 
उनका घर बसा आई हूँ मैं 
अपने पीछे 
उस घर में 

कुछ टूटने का डर कभी 
कोई अजल-गिरिफ़्ता चिंता 
वक़्त के पुर्ज़े लटकाने को 
की दीवारों पे चोट चुनिंदा 
उनके निशाँ न मिटा पाई 
पर वो सुराख़ भर आई हूँ मैं 
अपने पीछे 
उस घर में 

रस्सी से बाँधती थी 
बरामदे में पुरवाई 
तौलिये में समेट लेती 
ज़ुल्फों की अल्हड़ अंगड़ाई 
जिनमें संसार बाँधा था 
वो गिरहें खोल आई हूँ मैं 
अपने पीछे 
उस घर में 

एक झरोखा उस कमरे का 
पहली किरण जिसको चूमा करती थी 
एक गिलहरी लुका-छुपी में 
नयन मटकाए झूमा करती थी 
हटा कर गत्ते-कागज़ की आड़ 
उसको भी आज़ाद कर आई हूँ मैं 
अपने पीछे 
उस घर में 





मेरे सपने

मेरे सपने 
नहीं हैं सरसों के पीले खेतों के 
न बाज़ार में बिकते भेदों के 
ये तो बस हरियाली के दीवाने हैं 

मेरे सपने 
न ऊँची कनक मुंडेरों के 
न कागज़ के टुकड़ों के डेरों के 
बस रिश्तों की आँच पे पकी मिट्टी के अफ़साने हैं 

मेरे सपने 
आसमान पे किस्मत के तारे नहीं 
राह देखते मूक किनारे नहीं 
ज़मीन के सीने में बसी खुशबू के तराने हैं 

मेरे सपने 
नहीं हैं काजल बिंदी गहने चूड़ियाँ 
मन को जकड़े छलिया बेड़ियाँ 
ये चेहरे पे रैशन मुस्कान के  पैमाने हैं 

मेरे सपने 
न तुमसे जुडी यादों का पुलिंदा कोई 
न प्रेम नगर का बाशिंदा कोई 
अनकही कहानी और पिया के बंधन बचकाने हैं 

मेरे सपने 
इश्क़ नहीं कोई सोचा समझा 
न फटी पतंग का उलझा मांझा 
भटक कर खुद को पाने के सफ़र सुहाने हैं  

Monday 4 May 2015

और ही रंग था ...

और ही रंग था उस दौर का क्या हाल बताएँ 
जब हम आँख तले सपनों का बाज़ार सजाते थे 

रूह जुबां पे बसती थी , चोट आँखों में हंसती थी 
और खेल को बस हम ज़ख्मों का ज़िम्मेदार बताते थे

जब क़द्र थी भूक-प्यास की , मिजाज़ की , एहसास की 
जब आसमां से टपकते पानी को हम प्यास बताते थे 

सफ़ेद कागज़ पे लिखते थे शौक़ , ख़्वाब , नज़ाकत 
किसी के बहते आँसू हमको बेज़ार सताते थे 

राहों पे लिखी जाती थी सफर की कोई कहानी , 
किसी के लौट आने को , वक़्त का दिया जलाते थे 

मुझे वो "मैं " न मिले पर "मैं " के रंग पक्के हैं 
खोखले उसूलों की आज क्या ,कल भी हम ख़ाक उड़ाते थे 

Saturday 25 April 2015

ek khatam hua sa kissa



ek khatam hua sa kissa lagta tha koi pehle
wo hissa jo ab bhi mujhme na marta hai

na kabhi socha tha iss had tak kulbulaega
ye nasoor jaate jaate bhi kyu thaharta hai

tum kyu ab bhi sulagte rehte ho bheetar kahin
na aag ka wajood hai na sukoon milta hai

nayi koi raah mud jaae koi parinda toh kya
uss shaakh ka toota sapna na pighalta hai

uss baat pe tum galat iss baat pe mera dosh ! 
isme lutaya pal aaj mere muh ko silta hai

chun ke rakh lenge hum bhi bojhil saanso me lipta dum
ye dum na dum leta hai na nikalta hai 


Saturday 18 April 2015

ये वो ही दिन हैं फिर



ये वो ही दिन हैं फिर
जब धूप थोड़ी कम सुलगती थी
हवा ज़रा तेज़ चलती थी
किसी को आँचलों की नरमी
चेहरों की सिलवटों पे पड़ी
एक कराह सी लगती है
ये वो ही दिन हैं फिर


ये वो ही दिन हैं फिर
की जब हम बौराए से
मन से हारे , सिर झुकाए
दिल की ज़िदों को
कन्धों पे बिठाए चले थे
और पाँव की ज़ंजीर पिघलती है
ये वो ही दिन हैं फिर


ये वो ही दिन हैं फिर
जब घी रोटी पे जम जाता था
जैसे चाँद बादलों पे ग़श खाता था
बारिश में कपड़े-लत्ते भीतर सुखाए जाते थे
और छाते का दर्द ना कोई समझ पाता था
बीमार-हाल धड़कन है ,वैसे ही मचलती है
ये वो ही दिन हैं फिर !

Friday 13 March 2015

ये आवारगी का आलम



ये आवारगी का आलम , इसका भी इन्साफ करिये
करके खुदी (ego)से आज़ाद , खुद में खुद को भरिये
ये खरीद - फ़रोख़्त  की दुनिया है , इससे क्या ग़िला !
पर कैसे मोल - भाव की रिवायत से किनारा करिये ?!?


बाज़ार में बिकने वालों की क्या चाह रखना ! 
हो अपनी जेब पे भरोसा तो क्यूँ  "आह" रखना
वो , जो इस तिजारत की औक़ात से परे हैं
उनके पाले में खड़े रहने की औक़ात रखिये !


है आदिल सा , सहमा सा एक ख़्वाब मेरा
इस छज्जे के किनारे जाने कितनों का बसेरा
देके दुनिया को अपने कान , दिल दिया है ख्वाबों को
तो क्यूँ  रोज़ किसी के शिकवे पे बेवज़ह मरिये ?!?



पहले ही बहुत सी सरहदों के जाल हैं यहाँ
नहीं कोई सदा रहता ; बस कुछ मिट्टी के निशां
हाथों की क़ुव्वत से रंगे जाते हैं किस्मत के सफ़्हे
कहकशां के सितारों की चाल से फिर क्यूँ डरिये ! 


आज मैं हूँ ,तो महफ़िल है , खुशबू  रंग  मंज़िल है
न हो "गुलज़ार" सी कुव्वत ; स्याही कागज़ के काबिल है
कल कोई और , परसों होगा  कोई और
शमा गुलज़ार रखने को मालिक के हज़ार ज़रिये



Wednesday 11 March 2015

न तुम्हे मेरी ज़रूरत




न तुम्हे मेरी ज़रूरत , न मुझे तेरा गुमाँ है
यूँ ही मन के धागे बांधे फ़िर रहा इन्सां है

रवादारी 'औ इनायत की न बरसात अब करो तुम
है नौ-सिखिया ये मन मेरा, बड़ी शातिर तेरी ज़ुबाँ है

न किसी को दोष देने की ख्वाहिश न इज़्ज़त की है गुंजाइश
थे बनते दोस्त कल तक मेरे आज फ्रेम-जड़े मेहमां हैं

छोड़ा मैंने हाथ किसी का, किसी ने छोड़ दिया मेरा
आनी-जानी है ये दुनिया , सबका एक निगहबां है

अपनी ज़िंदादिली और सख़्त-जान के क़सीदे पढ़े हैं मैंने
पर न होगा ज़ाहिर कि मौसमो की मार से आरा ये मकाँ है

किसी के शौक़ का बाजार पूरी दुनिया में लगता है
महफ़िल है मुंसिफ तब तक , जब तक रगों में खून जवां है

पतझड़ में करूँ मैं ख़्वाहिश , रूख पे बहार की
और फिर अफ़सुर्दा (उदास) की मुझको इम्तहानों की इन्तेहां है

जाने कितनी बार फेंका है मैंने आसमानों की तरफ इनको
नामुराद सी दुआएँ न कबूल होती हैं , न मिटता इनका निशाँ है

ये उल्फत नहीं है शायद, गिरहों की लम्बी लड़ी है
सुलझाते उम्र निकलेगी , ये मज़ीद (furthur, more) लम्बा कारवां है

आशुफ़्ता (घबराए हुए ) हूँ की कोई तो दिखे असबाब (कारण , वजह ) इस करम का,
शायद यहाँ भी कोई मेरी ज़र - ज़मीन से आश्ना (परिचित) है

नहीं कुछ कोरा बचा है , न दो लफ्ज़ो में सिमट पाए
मेरी ज़िन्दगी के सफ़्हे हैं रंगे , ये लम्बी दास्तां है

Tuesday 10 March 2015

जाने कहाँ है वो मुकाम




जाने कहाँ है वो मुकाम के जहाँ पहुँच कर
दुनिया के उसूलों के काबिल कह खुद को बहलाते हैं

कभी एक ख़ाक में जा घुलता है पानी का कोई छींटा
ऐसे धार में शामिल हो खुद को सभ्य हम कहलाते हैं

है लड़ती हद से अनहद से हर रोज़ ही खुदी मेरी 
कि यहाँ ये पामाल करके सपने , कुछ तो पाते हैं

सिर्फ चेहरे का नूर ही नहीं किये देता है अँधा
तिजारतों में बिकते ईमान , करवटें बदलते इरादे हैं


हैं जीते वही बेशक के जो हैं आज़ाद इन चोंचलों से
पर रहे याद की बिना मरे नहीं ये जन्नत कभी पाते हैं

Friday 27 February 2015

Aadhi Raat




Aadhi  raat guzri hai
Aadha din baaki hai
Reshamo ki deewarein
Sar pe chatt khaaki hai

chaand ko mehmaan bana ,
shab bhar ko maangi raunakein..
jo hai behis , ehsaas se aari..
yu usko raat siyaah ki hai..

Kuch anchui takdeerein
Aur besudh si yaadein hain
Kabhi aks ka dhundalka
Kabhi yaad hi tabaah ki hai

Kyu main hi hu mutasir
Taariq (dark/darkness) raahon me dhundti chirag..!
Kahani kuch sapne, 
aur ek gunaah ki hai

Monday 23 February 2015

Sleepless saturday



Jab koi zubaa na asar paae
Hum dua ki zubaa par utar aae
Chalo ye bhi aazmaate hain
Ab kal purzo ka chod ke daman
Vishwaas pe daanv lagate hain

Wednesday 18 February 2015

A new me !! With love !

Wenever i leAve places i feel An intense urge to go back nd once again see wot is alteady seen ! Hear whAt is already heard , smell what is familiar ! A kind of string i feel attached to such places ... Places those are less luxurious , places those are normal, usual, ordinary , sober, level-headed... Places where people are plainspoken , familiar , pure , rude at times but honest and as good as one's words !
This string keeps me hook up and as and when i leave places and move to a new ones this cord seems to be stretching to an immeasurable extent , Till all the such new places...
Some part of me still settled in the old places , interacts with the new one and thus all the old and new me mingle and makes a new me ! Which is somehow more exotic , more humane, more grateful and beholden  towards that mighty God and more enlighten and acquaint !

- for you - jaipur , kashmir and lucknow
With love ! 

slavery is imporant !





A poets heart should never be in control.. Slavery is important somehow and is required to find out all the deep , profound wells of emotions and then it gives enough scope for finding your own limits of tolerance and forbearance ; history is the evidence !
Slavery picks out the best  in a person ! All the experiences i get , all the people i met , i be all myself , surrender myself to my heart , in return i get lots of love and in fact the jerks as well but in the end i am happy that i did what i wanted and this slavery made me do things which i could have not found justified as per the opinion of my inner self , that preaches all the time about what is evil and what is virtue !  What is wrong and what is right ! Keeps warning me from trespassing !!
I became "this" now and i m happy as i m capable enough now to handle myself in things , for which i used to seek "help" ! This slavery made me tough and strong ! This made me a poet in its own way ! It gave me words and i converted them into a theatre on paper.
When i work in my kitchen and do the work which does not require much of mind to be involved in it ,all my wayward thoughts create the best poetry out of this inattention!
When my heart is skipping all around the world and not welcoming any chains of control whose binds are made up of righteousness , saintliness , ethics ,  loyalty , secrets, ; my mind collects all the thoughts and frame them into all verses and stories i could have never ever expected myself able to imagine and write ever !! 
This servitude is amazing ! 
Its a release and a kind of emancipation in its own way !! 
This is just glorious and lovely ! :) 

Thursday 29 January 2015

मुझमें हो तुम




बता कहाँ ढूँढू तुझे ?
लाल रंग के गुबार में
या गंगा जल की फुहार में
तिलक की किसी लकीर में
दुआ बरसाते फ़कीर में
घंटे की चीत्कार में
या लेन देन के व्यापार में
किसी पेड़ की जड़ में
या दूर किसी बीहड़ में
किसी नदी के उफ़ान में
या बर्फीले तूफ़ान में
या शिलाओं के सीने में
किसी रेत के टीले में
नुक्कड़ पे बने चौंतरे पे
किसी दाड़ी वाले के पैंतरे में
तुम बसते किसी नमाज़ में
या गले फाड़ते साज़ में
या किसी भोंपू की आवाज़ में
पिछले कल में या आज में
मोमबत्ती दियो की आग में
लकीरों में बंधे भाग में
किसी कड़े में,किसी सिक्के में
या किसी गले के हार में
ये राह निहारे , पाँव पसारे
मानने को तैयार नहीं
इन्हीं कहीँ में छुपे पड़े हो
बड़े ज़िद्दी हो अड़े पड़े हो
कच्ची गोलियां न हमने खेली
हम मक्खी तुम गुड़ की भेली
छुपा छुपी न हमको भाए
नहीं बालक,तुम्हें समझ न आए
बहुत तरक्की हमने पाई
तेरे रहस्यों की गुत्थी सुलझाई
सीधे से अब सामने आओ
हमको न यूँ बहलाओ
ये कहते कहते पड़ी हाथ पे
एक नंगी उजली चाकू की धार
एक धारा फूट पड़ी
लाल रंग की बेशरम सी अपार
तब हमको समझ आया
की शरीर में जो ये दौड़ रही है
जो चीख़ है जो ये दुखन है
ये ही मंदिर ये ही मस्जिद
गुरूद्वारे गिरजा और सुखन है
फिर अपने कतरे हमने समेटे
सब सवाल अब रहे लपेटे
ज़वाबो का अंबार न सहा जाए
कुछ समझे कुछ यूँ ही रह जाए
ये कुछ अपरिचित जीवन हो तुम
किस्सों में लिपटे ; कभी गुमसुम
राग द्वेष तेरा मेरा
से परे कहीं उसका डेरा
सबको मिले और सबसे हो गुम
हो कहीँ नहीं मुझमें हो तुम
हो कहीं नहीं मुझमे हो तुम



Saturday 24 January 2015

द्वंद (...by Siddharth kumar Yadav )



"अधमुंदी आँख"और
"स्याही में सने" मेरे हाथ
कागज़ पे बैठे रहे
जैसे हों लड़ते आपस में
सत्-असत् के अस्तित्त्व पर
शब् भर भिड़ते रहे

कांच के ख्वाब हैं बिखरे हुए तन्हाई में
टूट जाएंगे गर आँखें खुलीं
अधमुंदी ही रहने दो इन्हे
धूप न छिड़को इनपर

आदर्श मूर्त हैं इन आँखों तले
हर संज्ञा है व्यवहृत
पलकों को न उतरने दो साँझ की तरह
ख्वाब कर रखे हैं इनमे अपहृत

हठात् और निर्मम सच
स्याही दिखाती सच्चाई  हरदम
ऊफ...इतनी सच्चाई
सच सुने सदियाँ  गुज़र गयीं
डर लगता है अब

हर इक लम्हा क्षत-विक्षत
कैद दर्द की आगोश में
ज्यों नासूर का रिसता खून ही
रंगा हो स्याही के रंग में

पर मैंने किसी की न मानी
"अधमुंदी आँखों " से जब ख्वाब बहने लगे
"स्याही सने हाथों"  को नहला दिया
जब हाथ काँप उठे दर्द से
आँखें बंद कर लीं
और ख्वाब सजा लिया...!!!

Sunday 18 January 2015

yu hota hai aksar..

Yu hota hai aksar..
Khaali Dar deewar , bewajah hi raah taakte Hain..
Ummeed ki baanh pakad kar..
Jaise safar kaat te Hain..
Tum ho aur ho bhi nahi..
Hum milenge Ek roz kahi..
Jaise junoon h mere sar..
Yu hota h aksar...

Yu hota hai aksar..
Meri kalam aur kagaz k beech...
Ek Jahan mera basta tha..
Jahan sab rango ke ghar the..
Har Kisi k liye rasta tha..
Uss mohalle ki raunak ab tum ho..
Mera ghar Kahan raha, Har gali base tum ho
Mere kisse hain uss kunche ka asar..
Yu hota h aksar...

Yu hota hai aksar..
Paa kar khona , Kho par pana..
Yu laga raha aana Jana..
Na mere chehre pe koi shikan aai..
Na Tumne Mujhe pehchana..
Ek paheli hai ye zindagi..
Nahi aasaan hai bandagi..
Main keh du Wo nazmo me..
Jo na zubaa kahe na nazar..
Yu hota hai aksar..

zindagi....

Zindagi khaak na thi,
 Khaak udaate guzri..
Tujhse kya kehte ,
Tere paas jo aate guzri..
Zindagi..
Din jo guzra ,
Toh kisi yaad ki ro mein guzra..
Shaam aayi,
Toh koi khawaab dikhate guzri..

Achhe waqton ki
tamanna mein rahi umr-e-rawaa'n..
waqt aesa tha
ke bas naaz uthate guzri..

Raat kya aayi ke
tanhai ki sargoshi mein..
Gham ka aalam tha magar ..
sunte sunate guzri..

Baar haa chaunk si jaati hai
nafasat dil ki..
Kisi thi aawaz..
kisko bulate guzri
Tujhse kya kehte..
Tere paas jo aate guzri..
Zindagii...
Zindagii..

Saturday 17 January 2015

sleepless Saturday

Ek roz Kuch Yu hua..
Koi muskuraya aur
Aalam madhyam hua..
Phir.. Kuch ret ke tile aae..
Kuch hum dugmagaae..
Aur sab dhundla gaya..
Koi nahi sunta..
Na kahi tak aawaz phunchti hai..
Ajeeb jagah hai..
Anokha anjana safar hai..
Ibadaton ki keemat nahi..
Talaf ki Ek umar Yu hi ..
Zismo me phansi rooh..
Marhal-e-shakht aur bass Tu..
Na koi saans leta hai..
Aur khoon jama hai ragon main..
Par uff ki Toh...
Main bejaan kehlaungi..
Aur kaise ummeedon ko muh dikhaungi !!
Ab Khud se hi naraz hu main..
Khaali se raasto me khoyi..
Kisi manzil ka raaz hoon main..
Aur duniya badalti hai..
Din guzarte hain..
Par Yu lagata hai jaise..
Sabhi Kuch ruk gaya hai...