Monday 7 October 2013

वो





वो भी जिसपे बस चलता है , बस उसी पे चला कर खुश है
रात को दिन, दिन को रात बना कर खुश है
मूर्तियों में पाँव पसार बैठा है शायद
मन के सूखे फूल में पर खुशबू है नदारद
उलझती सुलझती राह में साथ देने तो आ
कभी साथ मेरे मुस्कुराने तो आ

कच्चे पक्के से, सपने थे सादे
फिर बड़-बोले गीतों में याद करने के वादे
मुझे फिर अपने होने पर ही शक हो गया
मेरा तो होना ही ज़र्रे भर भी नहीं
मुझको बस तू है , तुझको बस मैं ही तो नहीं

अध-खुले रोशनदान से छन कर आती रोशिनी में
महसूस तो किया तुझको
निहारना भर दूभर था उस नरम किरण को
इस तरह तेरी असीम ताकत का अंदाज़ा लगाया मैंने
आँख की पुतली में आ कर चिपक गया चौन्धियारा
अब चाहे बंद हो या खुली पलकें , मुझे तेरा रोशनारा

तुझ तक कभी तो पहुँच जाऊँगी मैं भी
बेपरवाह सी रात बिताउंगी मैं भी
मेरे एक कनेर के फूल पर तू गौर फरमाएगा
मेरा गीत फिर होगा जग-ज़ाहिर
फिर यूँ ही खुश हुई, की कभी तो सुनेगा ही..
सबकी सुनता है आखिर !! 

2 comments:

  1. Wah yadav ji awsmly written. . .

    Salute to this emerging talent keep it up. . .

    Allah chaheY jiseY beyhisaab hunar k saath RIZQ deta hai. . .

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  2. thank you soooo much deep ! 😊 Zarra nawaazi ke liye shukriya ... such comments are a big encouragement

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