Saturday 24 January 2015

द्वंद (...by Siddharth kumar Yadav )



"अधमुंदी आँख"और
"स्याही में सने" मेरे हाथ
कागज़ पे बैठे रहे
जैसे हों लड़ते आपस में
सत्-असत् के अस्तित्त्व पर
शब् भर भिड़ते रहे

कांच के ख्वाब हैं बिखरे हुए तन्हाई में
टूट जाएंगे गर आँखें खुलीं
अधमुंदी ही रहने दो इन्हे
धूप न छिड़को इनपर

आदर्श मूर्त हैं इन आँखों तले
हर संज्ञा है व्यवहृत
पलकों को न उतरने दो साँझ की तरह
ख्वाब कर रखे हैं इनमे अपहृत

हठात् और निर्मम सच
स्याही दिखाती सच्चाई  हरदम
ऊफ...इतनी सच्चाई
सच सुने सदियाँ  गुज़र गयीं
डर लगता है अब

हर इक लम्हा क्षत-विक्षत
कैद दर्द की आगोश में
ज्यों नासूर का रिसता खून ही
रंगा हो स्याही के रंग में

पर मैंने किसी की न मानी
"अधमुंदी आँखों " से जब ख्वाब बहने लगे
"स्याही सने हाथों"  को नहला दिया
जब हाथ काँप उठे दर्द से
आँखें बंद कर लीं
और ख्वाब सजा लिया...!!!

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