Tuesday 6 September 2016

मन




सारा बोझ सर से उतार के
रख देने की ख़्वाहिश ने
फिर सर उठाया है
मन फिर से फुसफुसाया
और आकांशाएं जवान होने लगीं ...
काश !
सुबह को रंगीन किरणें घर आएं
एक कोरा अखबार हो
और झूले की मीठी नमकीन पींगें
ओर-छोर ऐसे ही झूले मन
और झूले से गिर जाने के अलावा
कोई और डर डरा पाए
हल्की हल्की साँस आए
फिर तुलसी अदरक की चाय
और दोपहरी में पीली दाल -चावल
एक गुदगुदाती किताब के पन्ने
तो कभी कोई तुमसी नज़्म 
जो बिन बोले मन सहला जाए
शाम में तुम आओ
तो तुम्हें मदमस्त पढ़ सुनाती
कुछ कविता का रस होता
कुछ तुमको गुनगुनाती
..सुस्ताती अँगड़ाती शरीर की हड्डियाँ
माँ की गोद सा बिछौना
और पिता की पनाह सी छत
बस इतना मिल जाए
जैसे बरसों बाद तन गंगा नहाए..
ज़मीन पे टिके रहने की ख़्वाहिश है
बाहर तो एक बड़ी नुमाइश है
जहाँ सब बिकता है
सपने हकीकत किसी के दिन ,
किसी की रात
यहाँ तक की बिक जाते है
कभी कभी खुद हालात !
बाकी सब ढकोसला है
सुना है , ऊँची इमारतों का मन खोकला है
सब मन की माया
मन ने ही बना डाला संसार
सब मन के आगे पस्त हुए
पर मन ने ही बुना है व्यापार

ख़ैर !
हर छुट्टी के दिन अपने सपनों को
पानी देते रहते हैं
मन का वृक्ष सूख जाए
मैं ज़िंदा हूँ ! कोई तो याद दिलाए
एक उम्मीद की नैय्या पार लग जाए
कैसे भी करके ...
ये  सनीचर उतर जाए

कल फिर दौड़ में बने रहने को
एक ग़ैर-ज़रूरी जंग होगी
ज़रुरत बुरी चीज़ है !!

ये सुन मेरी आत्मा मुझ-ही  से तंग होगी

5 comments:

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  2. Shani utar chuka hai. Enjoy life.

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    1. Zindagi hai Mann ki ataa , na socho naahak
      Mann jo maane!! Chahe Jannat ya dozakh

      Thank you .. keep reading and sharing your views

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  3. This comment has been removed by the author.

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