Wednesday 11 March 2015

न तुम्हे मेरी ज़रूरत




न तुम्हे मेरी ज़रूरत , न मुझे तेरा गुमाँ है
यूँ ही मन के धागे बांधे फ़िर रहा इन्सां है

रवादारी 'औ इनायत की न बरसात अब करो तुम
है नौ-सिखिया ये मन मेरा, बड़ी शातिर तेरी ज़ुबाँ है

न किसी को दोष देने की ख्वाहिश न इज़्ज़त की है गुंजाइश
थे बनते दोस्त कल तक मेरे आज फ्रेम-जड़े मेहमां हैं

छोड़ा मैंने हाथ किसी का, किसी ने छोड़ दिया मेरा
आनी-जानी है ये दुनिया , सबका एक निगहबां है

अपनी ज़िंदादिली और सख़्त-जान के क़सीदे पढ़े हैं मैंने
पर न होगा ज़ाहिर कि मौसमो की मार से आरा ये मकाँ है

किसी के शौक़ का बाजार पूरी दुनिया में लगता है
महफ़िल है मुंसिफ तब तक , जब तक रगों में खून जवां है

पतझड़ में करूँ मैं ख़्वाहिश , रूख पे बहार की
और फिर अफ़सुर्दा (उदास) की मुझको इम्तहानों की इन्तेहां है

जाने कितनी बार फेंका है मैंने आसमानों की तरफ इनको
नामुराद सी दुआएँ न कबूल होती हैं , न मिटता इनका निशाँ है

ये उल्फत नहीं है शायद, गिरहों की लम्बी लड़ी है
सुलझाते उम्र निकलेगी , ये मज़ीद (furthur, more) लम्बा कारवां है

आशुफ़्ता (घबराए हुए ) हूँ की कोई तो दिखे असबाब (कारण , वजह ) इस करम का,
शायद यहाँ भी कोई मेरी ज़र - ज़मीन से आश्ना (परिचित) है

नहीं कुछ कोरा बचा है , न दो लफ्ज़ो में सिमट पाए
मेरी ज़िन्दगी के सफ़्हे हैं रंगे , ये लम्बी दास्तां है

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