Friday 13 March 2015

ये आवारगी का आलम



ये आवारगी का आलम , इसका भी इन्साफ करिये
करके खुदी (ego)से आज़ाद , खुद में खुद को भरिये
ये खरीद - फ़रोख़्त  की दुनिया है , इससे क्या ग़िला !
पर कैसे मोल - भाव की रिवायत से किनारा करिये ?!?


बाज़ार में बिकने वालों की क्या चाह रखना ! 
हो अपनी जेब पे भरोसा तो क्यूँ  "आह" रखना
वो , जो इस तिजारत की औक़ात से परे हैं
उनके पाले में खड़े रहने की औक़ात रखिये !


है आदिल सा , सहमा सा एक ख़्वाब मेरा
इस छज्जे के किनारे जाने कितनों का बसेरा
देके दुनिया को अपने कान , दिल दिया है ख्वाबों को
तो क्यूँ  रोज़ किसी के शिकवे पे बेवज़ह मरिये ?!?



पहले ही बहुत सी सरहदों के जाल हैं यहाँ
नहीं कोई सदा रहता ; बस कुछ मिट्टी के निशां
हाथों की क़ुव्वत से रंगे जाते हैं किस्मत के सफ़्हे
कहकशां के सितारों की चाल से फिर क्यूँ डरिये ! 


आज मैं हूँ ,तो महफ़िल है , खुशबू  रंग  मंज़िल है
न हो "गुलज़ार" सी कुव्वत ; स्याही कागज़ के काबिल है
कल कोई और , परसों होगा  कोई और
शमा गुलज़ार रखने को मालिक के हज़ार ज़रिये



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