Saturday 18 April 2015

ये वो ही दिन हैं फिर



ये वो ही दिन हैं फिर
जब धूप थोड़ी कम सुलगती थी
हवा ज़रा तेज़ चलती थी
किसी को आँचलों की नरमी
चेहरों की सिलवटों पे पड़ी
एक कराह सी लगती है
ये वो ही दिन हैं फिर


ये वो ही दिन हैं फिर
की जब हम बौराए से
मन से हारे , सिर झुकाए
दिल की ज़िदों को
कन्धों पे बिठाए चले थे
और पाँव की ज़ंजीर पिघलती है
ये वो ही दिन हैं फिर


ये वो ही दिन हैं फिर
जब घी रोटी पे जम जाता था
जैसे चाँद बादलों पे ग़श खाता था
बारिश में कपड़े-लत्ते भीतर सुखाए जाते थे
और छाते का दर्द ना कोई समझ पाता था
बीमार-हाल धड़कन है ,वैसे ही मचलती है
ये वो ही दिन हैं फिर !

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