Friday 21 August 2015

मज़हबों के परे कोई इश्क़




मज़हबों के परे कोई इश्क़ जो बसा है
जहाँ होली दिवाली ईद बैसाखी , एक जैसा ही नशा है 
एक ही माँ है हम सबकी , 
एक ही हम सबका खुदा है
कभी पगड़ी , कभी टोपी , कभी बुरखों में कसा है
अर्श से फर्श तक लिखी कहानी क़ुर्बानी की 
ख़ातिर मिट्टी की सब खोने अब हमारी परीक्षा है
हमारा दिमाग हवा इश्क़ दरिया और दिल शीशा है
भारत के हम वासी बस काफ़ी ये ज़ुनून सा है
छू लेंगे हम किसी रोज़ , वो आसमां भी 
किसी सच्ची सी आज़ादी का जहाँ कहकशां है



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