Saturday 5 September 2015

नहीं नफ़रतों से हासिल कुछ

नहीं नफ़रतों से हासिल कुछ भी जब किसी को 
तो कैसे घोंसला तोड़ देता है कोई परिंदों का 

 किसी के शौक बिकते हैं हाट में झिलमिलाते 
 कोई ज़रूरतें जुटाता है भीख सा - चंदों सा 

है शुक्र कि बाकी है इतनी इंसानियत - ऐ -मोहब्बत 
दिल दुखता है जो सर कटे नापाक दरिंदों का 

मेरे सर पे ऐसे रख दो मोर-मुकुट प्यारे 
कुछ बोझ कम हो जाए , सांस आए ज़िन्दों सा 

अच्छा आदमी होने का एक भ्रम-सा है मैंने पला 
जिस क़ैद में रहता है , वो एक जाल है पसंदों का 

किस ओर मेरा घर है ? था किस धार मुझको बहना ?!? 
बस वो डगर मिला दे मालिक , जहाँ शहर तेरे बन्दों का 

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