Saturday 30 April 2016

न कोई रिश्ता न कोई हक़ रहा



न कोई रिश्ता न कोई हक़ रहा
पर मेरे वजूद की तरह वो बेशक रहा
बसा करता है सीने की परतों में कहीं
चलो ये दर्द ही इनाम-उल-हक़ रहा

ऐशो-आराम की एक हांडी में
दाल-भात सा है दहक रहा
है एक सवाल ये मुक्कम्मल सा
क्यों मट्टी में ही मर्ज सिसक रहा ?

नहीं कोई सुराख फिर भी दीदार को
उठा के एढ़ियां जो मैं उचक रहा
बेकार बारहां सा मश्क़ है लेकिन
जो छोड़ दूँ तो तुझमें-मुझमें क्या फ़र्क रहा !

आसाइश में मेरे बाजू में सुनो
एक हुजूम दोस्त-रिश्तों का चहक रहा
आमंद-ओ-रफ़्त; इक पुराना सिलसिला
मन यूँ ही वहशत में बहक रहा !

है तुझसे कैसा यकीन का रिश्ता !
किसी और पे इनायत से मुझको रश्क़ रहा
कितनी ख्वाहिशें हैं ! पूछो उससे  
फूल-माला बन गले में जो कसक रहा

तेरे बिना मैं कुछ नहीं माना
पर कहाँ मेरे बिन तू भी महक रहा !
ख़ुदा ; इलाही या आसमां का ख़्वाब
ये कुछ नहीं  , तेरा नाम अब इसक रहा।


(इनाम-उल-हक़- gift of the truth
आसाइश - rest , comfort
आमंद-ओ-रफ़्त - coming and going
इसक - इश्क़ )

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