Sunday 6 July 2014

ज़्यादा कुछ और नहीं...

ज़्यादा कुछ और नहीं.,
बेहतर बन जाऊँ याद हि मैं...
बेवक्त कि दस्तक बन मन में ,  कुछ तो हाल बताऊँगी । ।


न साया , न फ़ितरत...,
न हर कदम कि मैं राह बनूँ...
बस किसी से न कहना तुम..
जो आस पास मैं आन बसूँ...
जग हँसाई के नज़दीक ही कुछ
सिला गज़ब तुम पाओगे
और आख़िर में खुद कि ही,
नादानी पे मुरझाओगे ।

ज्यादा कुछ और नहीं..
बेहतर बन जाऊँ आवाज़ ही मैं..
ऊँची उठ उठ कर मैं.. लोगों का ध्यान बँटाऊँगी । ।

प्यार मोहब्बत कि छोड़ो
तुम दो पल बस अपने देना
मेरा दिल रखने कि ख़ातिर
उधार के कुछ ख़्वाब बोना
कह कर ऊँची आवाज़ में तुम
बस दुनिया का जी बहलाओगे
मेरा क्या जाने लायक अब रहा
क्या तुम ये खटास सह पाओगे ?


ज़्यादा कुछ और नहीं ,
बेहतर बन जाऊँ लाज ही मैं
इज़्ज़त की रखवाली करते, चाहे शहीद हो जाऊँगी । ।


किस्मत की गाँठों से परे
मैंने तुमको बुना ख़ुद में
जाने कब ये लम्हे
तारीक बने तेरी सुध में
घुँगरू सी बजती पैरों में
बेड़ीयों की शक्ल की ये पायल
मुँह से चाहे न आवाज़ आई
पर भीतर है कोई घायल ।

ज़्यादा कुछ और नहीं
बेहतर बन जाऊँ साज़ ही मैं
ले कर ज़ख्म खुद पर, संगीत सुरा लुटाऊँगी । ।


कुछ किस्से और कुछ बातें
मेरे दामन की नेमतें
और ख़याल करने की तुम
ना ही उठाओ अब ज़हमतें
मुझमें ज़ुर्रत पर बाकी है
रेशम नहीं, मेरी रात खाकी है
कल नया नवेला सूरज सजाना
खिड़की के कोने ने भी हाँ की है ।


ज़्यादा कुछ और नहीं
बेहतर बन जाऊँ आज ही मैं,
जो बीत गया तो भी , सीख बन साथ रह जाऊँगी । ।


उड़ता फिरता तेरे घर में
मदहोश सा मन कम्बख़त
किस रोज़ था बारिश का मौसम
लिखावट में बोलता तेरा वो ख़त
मैं छुप कर सबसे मुस्काती सी
उँगली में लट लिपटाती सी
हर शब्द पे कुछ इठलाती थी
खुद को हसीन बतलाती थी ।


ज़्यादा कुछ और नहीं
बेहतर बन जाऊँ काँच ही मैं
ख़ाक को गले लगा कर भी, न ख़ाक में शामिल कहलाऊँगी । ।


वो रस के दिन और रस की रात
धूप में पड़ी छोड़ देना
काग़ज़ -पत्ती में लिपटी यादें
बरसात में ही निचोड़ देना
नमुराद लफ्ज़ मुँह तक आए..
तो घूँट बना पी जाना तुम
कोइ खास नहीं, भूलो ऐसे
यूँ सांझ ढले जैसे मद्द्धम ।


ज़्यादा कुछ और नहीं
बेहतर बन जाऊँ आभास ही मैं
रंग बदलते मौसम का रंग तुम्हें बतलाऊँगी..। । 

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