Saturday 9 May 2015

उस घर में


कुछ धूल में लिपटे फ्रेम 
और फ्रेम में जड़ी काई 
एक दीवार जिसके सहारे 
सिसकियों में रात बिताई 
बस ये ही कुछ याद है 
जो छोड़ आई हूँ मैं 
अपने पीछे 
उस घर में

वो छज्जा जहाँ बार बार 
घर बनाता था कबूतर का जोड़ा 
हर बार मैं झुँझलाई 
हर बार तिनकों को तोड़ा 
बचा खुचा समेट कर अपना 
उनका घर बसा आई हूँ मैं 
अपने पीछे 
उस घर में 

कुछ टूटने का डर कभी 
कोई अजल-गिरिफ़्ता चिंता 
वक़्त के पुर्ज़े लटकाने को 
की दीवारों पे चोट चुनिंदा 
उनके निशाँ न मिटा पाई 
पर वो सुराख़ भर आई हूँ मैं 
अपने पीछे 
उस घर में 

रस्सी से बाँधती थी 
बरामदे में पुरवाई 
तौलिये में समेट लेती 
ज़ुल्फों की अल्हड़ अंगड़ाई 
जिनमें संसार बाँधा था 
वो गिरहें खोल आई हूँ मैं 
अपने पीछे 
उस घर में 

एक झरोखा उस कमरे का 
पहली किरण जिसको चूमा करती थी 
एक गिलहरी लुका-छुपी में 
नयन मटकाए झूमा करती थी 
हटा कर गत्ते-कागज़ की आड़ 
उसको भी आज़ाद कर आई हूँ मैं 
अपने पीछे 
उस घर में 





6 comments:

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    1. I m glad that u liked it.. bahut shukriya @mohammed iliyas 😊 :)

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  2. Hi anushka remember,, i like ur blog n ur writting style ,, i will share my collection soon.

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  3. Hi anushka remember,, i like ur blog n ur writting style ,, i will share my collection soon.

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    1. Hi kamal ! Yes I remember you .. long time ! Yes sure .. please share your stuff as well .. I will be glad to read it

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