Monday 4 May 2015

और ही रंग था ...

और ही रंग था उस दौर का क्या हाल बताएँ 
जब हम आँख तले सपनों का बाज़ार सजाते थे 

रूह जुबां पे बसती थी , चोट आँखों में हंसती थी 
और खेल को बस हम ज़ख्मों का ज़िम्मेदार बताते थे

जब क़द्र थी भूक-प्यास की , मिजाज़ की , एहसास की 
जब आसमां से टपकते पानी को हम प्यास बताते थे 

सफ़ेद कागज़ पे लिखते थे शौक़ , ख़्वाब , नज़ाकत 
किसी के बहते आँसू हमको बेज़ार सताते थे 

राहों पे लिखी जाती थी सफर की कोई कहानी , 
किसी के लौट आने को , वक़्त का दिया जलाते थे 

मुझे वो "मैं " न मिले पर "मैं " के रंग पक्के हैं 
खोखले उसूलों की आज क्या ,कल भी हम ख़ाक उड़ाते थे 

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